Saturday, February 28, 2009

कहां-कहां निपटें?

इन दिनों तमाम चैनल और अखबार तालिबान, पाकिस्तान और अल क़ायदा की रट लगा रहे हैं और पिछले तीन दिन से देश के अलग-अलग राज्यों में अचानक से बढ़े नक्सली हमले पर किसी की तवज्जो ही नहीं जा रही। शायद मीडिया की नज़र में आतंकवाद ज्यादा बड़ा होता है क्योंकि उसके निशाने बड़े होते हैं, जबकि नक्सलवाद सुनने में ही डाउनमार्केट लगता है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि नक्सली हिंसा ने भी आतंकवादी हमलों से कम क़हर नहीं बरपाया है। नक्सली नेटवर्क भी आतंकी नेटवर्क से कम फैला हुआ नहीं है। आंध्र प्रदेश से लेकर उड़ीसा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के कुछ इलाके और पश्चिम बंगाल तक इसकी चपेट में हैं। ख़ास बात ये है कि जब-जब चुनाव होने वाले होते हैं, नक्सली गतिविधियां एकदम से बढ़ जाती हैं। दो दिन पहले उड़ीसा के सुंदरगढ़ ज़िले में नक्सलियों ने भालूलता रेलवे स्टेशन उड़ा दिया। पूरे दिन संबलपुर रेलखंड पर ट्रेनों की आवाजाही ठप रही। इसके बाद बिहार में रतनगढ़ स्टेशन फूंक दिया और फिर मुंगेर के पास रेलवे ट्रैक उड़ा दिया। आतंकवाद हमारे देश में पिछले कुछ साल से बढ़ा है क्योंकि इससे पहले ये ज़हर जम्मू-कश्मीर तक ही सीमित था। लेकिन, नक्सलवाद बहुत पुराना मर्ज है, जो शायद लाइलाज़ भी होता जा रहा है। सरकार इसपर हर साल करोड़ों रुपये फूंकती जा रही है। हर साल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई जाती है और रणनीति तय की जाती है। लेकिन, नतीजा ये सामने आता है कि कभी महाराष्ट्र में एक साथ दर्जनों पुलिस वालों को मारकर उनकी आंखें तक नक्सली निकाल लेते हैं तो छत्तीसगढ़ के जंगलों में तलाशी अभियान में गए दस्ते का ही सफाया कर देते हैं। ज़रूरत है आतंक के नेटवर्क को तोड़ने की कोशिशों के साथ-साथ नक्सल नेटवर्क को तोड़ने और इस समस्या की जड़ तक पहुंचने की युद्धस्तर पर कोशिश करना...वर्ना एक ओर तो देश पाकिस्तानी आतंकियों की साज़िशों को नाकाम करने में उलझा रहेगा और दूसरी ओर देसी नक्सलियों की हिंसा का सामना करने में..
आपका
परम

Tuesday, February 24, 2009

इस मर्ज का इलाज क्या?

बीमारी का इलाज़ धीरे-धीरे करना चाहिए। खासकर अगर बीमारी ज्यादा फैल गई हो, वर्ना इलाज का उल्टा असर हो जाता है। ये बात उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीति में अपराधियों के बढ़ते दबदबे के संदर्भ में उस वक्त कही थी, जब वो भयमुक्त समाज के नारे के साथ सत्ता में आई थीं। लेकिन, कहते हैं ना कि चोर-चोर मौसेरे भाई सो बहन जी के इलाज का तरीका भी देखिए। मुख्तार अंसारी इस बार पवित्र धर्मनगरी वाराणसी से लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे और वो भी बहन जी की पार्टी यानी बीएसपी के टिकट पर और ईनाम मुख्तार के भाई अफज़ाल अंसारी को भी मिला है। अफज़ाल गाज़ीपुर से बीएसपी टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। अब ये तो मायावती ही बता सकती हैं कि विधायक कृष्णानंद हत्याकांड के आरोपी ने राजनीति में आतंक के अलावा ऐसा कौन सा काम कर दिया कि उन्हें वो टिकट से नवाज़ रही हैं या फिर उनका इलाज बिल्ली को दूध की रखवाली वाले नुस्खे पर तो नहीं चल रहा। वैसे चुनावी दंगल में दागी सिर्फ बीएसपी से नहीं किस्मत आजमाएंगे, ऐसी ही छवि वाले ब्रजभूषण शरण सिंह इस बार समाजवादी पार्टी टिकट पर गोंडा के बदले कैसरगंज से बुलेट के सहारे बैलेट बटोरते नज़र आएंगे। अदाकारी के जौहर दिखाने के साथ-साथ ए के 47 रखने के मामले में नाम कमा चुके संजय दत्त लखनऊ से साइकिल की सवारी कर ही रहे हैं तो जेल में बंद डॉन बबलू श्रीवास्तव भी वहीं से चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। ऐसे ही नेताओं से धन्य है हमारा लोकतंत्र...चलिए यूपी के बाद देख लेते हैं बिहार का हाल...मज़ाक में लोग कहते भी हैं, दोनों भले ही दो राज्य हैं..लेकिन, दोनों भाई जैसे ही हैं। तभी तो इन दोनों राज्यों में चुनाव के दौरान शांति बनाए रखना चुनाव आयोग के लिए उतनी ही बड़ी चुनौती मानी जाती है, जितना आतंक प्रभावित जम्मू-कश्मीर या नक्सल हिंसा से ग्रस्त झारखंड या उड़ीसा में चुनाव कराना। खैर..हाल ही में टीवी पर देखा कि रामविलास पासवान अपने साथ खड़े सूरजभान सिंह को बलिया से लोकजनशक्ति पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर रहे थे और सूरजभान लोकतंत्र की आवाज़ को संसद में बुलंद करने के लिए जनता से वोट देने की अपील कर रहे थे। सूरजभान भी हाल तक पटना के बेऊर जेल में हत्या के मामले में बंद थे और बिहार से बाहर के लोगों के लिए भले ही अपरिचित हों, लेकिन मोकामा से लेकर बलिया तक इनकी दबंगई काबिले-तारीफ है। इनके मुकाबले ही तो नीतीश कुमार ने छोटे सरकार यानी अनंत सिंह नाम के गुंडे को बड़ा नेता बनवाया है। और ऐन चुनाव से पहले तिहाड़ में बंद पड़े पप्पू यादव को भी जमानत मिल गई है। सब चुनाव मैदान में अपने विरोधी उम्मीदवारों को देख लेने की तैयारी में हैं। हाल ही में शाहनवाज़ हुसैन संसद में आरजेडी के तस्लीमुद्दीन को देख लेने की ललकार खुलेआम लगाते नज़र आए। बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट ने कुछ दिन पहले सभी दलों को एक चिट्ठी लिखी थी। मजमून ये था कि ये दल चुनावों में किसी दागी या आपराधिक छवि वाले नेता को टिकट नहीं देंगे वर्ना उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। कई संगठन भी ऐसे लोगों को चुनाव में उतारने के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे हैं। लेकिन, मानता कोई नहीं है क्योंकि हर कोई जानता है कि बैलेट और बुलेट का संबंध रोटी और सब्ज़ी का है, चावल और दाल का है। हां, बात राजनीति में स्वच्छता की सब करता है और जब बात दागियों की आती है तो दलील भी देता है कि जबतक सज़ा नहीं होती, तबतक कोई दागदार नहीं होता..सवाल ये है कि फिर ये लोग चुनाव जीत कैसे जाते हैं। हम लोग क्यों उन्हें वोट दे देते हैं। तो जवाब ये है कि आज भी अगर वोटिंग आठ बजे सुबह से शुरू होती है और लोग दो-चार घंटे बाद वोट देने मतदान केंद्र पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि उनका वोट तो डाला जा चुका है। जी हां, बड़े शहरों के वोटर भले ही लोकतंत्र की इस तेज़-तर्रार पद्धति से अनजान हों, लेकिन यूपी और बिहार के लोग इससे कतई अनजान नहीं। जिन मतदान केंद्रों पर वोटर पचास फीसदी की तादाद में पहुंचते हैं, वहां भी अस्सी-नब्बे फीसदी वोट पड़ते हैं। पोलिंग एजेंट अगर बराबरी की टक्कर वाले हों तो वोट भी बराबर में बांट लेते हैं और अगर खास पार्टी का एजेंट दमदार हो, रुतबेदार हो तो अपने उम्मीदवार के लिए वोट छापने में पूरा ज़ोर लगा देता है। बिहार में गुजरे जमाने का एक दबंग विधायक अपने इलाके के वोटरों को कहता था...दिन तुम्हारा, रात हमारा...(हमारी नहीं हमारा क्योंकि बात बिहार की है, भाषा पर ना जाएं)..यानी अगर दिन में हमें वोट नहीं दिया तो उस समय तो सुरक्षाकर्मी आपको बचा लेंगे, लेकिन रात में कौन बचाएगा ? अब जान का डर तो भई सबको है..तभी तो लोग एक रंगदार को पैसे देकर दूसरों से खुद को महफूज रखने को मजबूर हैं और इसी मजबूरी का फायदा उठा रही हैं ये पार्टियां...और जबतक हम मजबूर हैं तबतक ये सब चलता रहेगा..चलता रहेगा...
आपका
परम

Sunday, February 15, 2009

हंसिए मत...सोचिए

दो दिन पहले एक ख़बर काफी चर्चा में रही थी। ब्रिटेन में एक तेरह साल का बच्चा बाप बन गया था। चाय की दुकान पर जब किसी ने चर्चा छेड़ी तो एक मित्र ने जमकर ठहाका लगाया। पता नहीं क्यों, मैं ठहाका नहीं लगा सका क्योंकि दिमाग में ख्याल उस बच्चे का आया, जिसकी मां पंद्रह साल की और पिता तेरह साल का है। सोचा, अगर इनके परिवार ने साथ नहीं दिया तो क्या भविष्य होगा, उस बच्चे का ? अच्छा-ख़ासा कमाने वाला आदमी आज की तारीख में पूरी प्लानिंग के बाद शादी करता है और फिर कुछ जमा-पूंजी जुटाने के बाद बच्चे के बारे में सोचता है...और दो बच्चों के नाम से तो हवा ही निकल जाती है..ऐसे में ये क्या हो रहा है? फिक्र ब्रिटेन की सरकार को भी हो रही है। बाक़ायदा वहां की संसद में चिंता जताई गई, मंत्री को बयान देना पड़ा। लेकिन, फिक्र भारत में भी कम नहीं है। क्या हो शादी की उम्र...इस सवाल को लेकर दिल्ली में हाईकोर्ट की एक फुल बेंच परेशानी में है और केंद्र सरकार भी पसोपेश में है। मामला एक ऐसे जोड़े की शादी का है, जिसमें दोनों नाबालिग हैं। पंद्रह साल की उम्र में इन्होंने शादी कर ली। हाईकोर्ट की एकल पीठ ने लड़की को बच्चे माफ कीजिएगा ..पति के साथ रहने की इजाजत भी दे दी। लेकिन, घरवालों की याचिका पर दो सदस्यों की पीठ ने पहले फ़ैसले को पलट दिया। अब लड़की की उम्र सत्रह साल है और वो एक महीने बाद मां भी बनने वाली है। ऐसे में कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि शादी की उम्र क्या होनी चाहिए। सरकार की ओर से इस मामले में ये दलील दे दी गई कि आजकल तो 15 में बच्चे मैच्योर हो जाते हैं, लिहाजा इन्हें साथ रहने की इजाजत मिल जानी चाहिए। वैसे शादी की उम्र तो 18 और 21 है ही। कोर्ट नाराज़ है, सरकार से ठोस तर्क देने को कहा गया है। वैसे एक और मामला दिल्ली का ही आया था। एक नाबालिग जोड़े ने शादी कर ली थी और जब उन्हें बच्चा हुआ तो एक दूसरी महिला को तबतक पालने के लिए सौंप दिया था, जबतक वो बालिग नहीं हो जाते। जब बालिग हुए तो बच्चा मांगने गए, लेकिन पालने वाली मां ने इससे इनकार कर दिया। लंबा बवाल चला, लेकिन बच्चा जन्म देने वाली मां को ही मिला। तब भी ऐसे ही सवाल उठे थे। सवाल ये है कि अगर आज भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं तो हम किस बूते गुज़रे ज़माने की बालविवाह प्रथा को उलाहना दे सकते हैं। दरअसल, ज़िंदगी चलाने की जद्दोज़हद में हो रही वक्त की कमी से हम अपने बच्चों पर ध्यान ही नहीं दे पा रहे...नतीज़ा सामने है। उन्हें जो ठीक लगता है, वो करते हैं क्योंकि सही सुझाव देने वाला उन्हें मिलता ही नहीं। ज़ाहिर सी बात है...कम उम्र में सेक्स को लेकर आकर्षण कुदरती है, लेकिन सेक्स को लेकर सही सोच तो कुदरती नहीं, उसे तो समझना होगा...समझाना होगा। वर्ना आज हम दूसरों के किस्से सुनकर मज़ा लेते हैं, कल घर में यही किस्सा देखकर रोएंगे।
आपका
परम

Saturday, February 14, 2009

प्यार...इकरार...तकरार

जब उन्होंने देखा 'उसे' पहली बार,
सोचा, दिन में कैसे हुआ चांद का दीदार..
हो गया था उन्हें, पहली नज़र में प्यार,
जुटाई हिम्मत और कर दिया इज़हार..

वो भी थी नए अहसास से बेक़रार,
थोड़ी झिझक, थोड़ा शर्म और कर दिया इकरार..
रिश्ते में बदला प्यार तो ज़िंदगी ने पकड़ी रफ्तार,
घर में गूंजी किलकारी तो और बढ़ गया प्यार..

लेकिन, धीरे-धीरे, कब, कैसे..छोटी बातें बन गईं बड़ी दीवार,
ख्याल तब आया, जब बढ़ती ही गई तकरार..
पर, ये फलसफा कभी न भूलना यार,
कि उनमें ही होती है तकरार, जो करते हैं प्यार...

बस थोड़ा सा रखो सब्र और करो थोड़ा इंतज़ार,
ये साथ है हमेशा का..सो बरसेगी प्यार की फुहार..

सभी ब्लॉगर्स को वैलेंटाइन्स डे की बधाई...जिन्हें इस बार मायूसी मिली, उनके लिए better luck next time...आपका
परम

Friday, February 13, 2009

जुबां संभाल के भई..

पाकिस्तान ने मुंबई हमले पर आखिरकार पहला जवाब दे दिया...सरकार को लगा भागते भूत की लंगोट भली..सो तारीफ भी की। हालांकि पाकिस्तान ने अपने जवाब के साथ भारत पर तीस सवाल भी दागे और ये भी कहा कि उसके यहां तो साज़िश का कुछ ही हिस्सा रचा गया बाक़ी तो जो हुआ, वो भारत जाने मसलन आतंकियों को सिम भारत में कैसे मिले? मुंबई में उसकी मदद किसने की वगैरह-वगैरह...यूपीए सरकार पर निशाना साधते-साधते नरेंद्र मोदी भी दो दिन पहले पाकिस्तानी अल्फाज बोल गए थे और इस बार तो मुंबई पुलिस कमिश्नर की ही जुबान फिसल गई। उन्होंने देखा कि रहमान मलिक के बयान के बाद प्रणब, चिदंबरम, रविशंकर, आडवाणी सब ही बोल रहे हैं तो वो भी बोल पड़े। कह डाला कि हां स्थानीय लोगों ने पाकिस्तानी आतंकियों को हमले में मदद दी और सोलह की तो तलाश भी हो रही है। अरे हसन गफूर साहब..थोड़ा संयम रख लेते...टीवी पर आने का इतना ही शौक था तो हमले वाले दिन कुछ कर दिखाते...क्यों देश की कूटनीतिक कोशिशों को शहीद करने पर तुले हैं। खैर..कुछ ही देर बाद उनका अगला बयान आया कि नहीं, किसी ने आतंकियों को स्थानीय स्तर पर मदद नहीं दी..लेकिन, तरकश से निकले तीर की तरह जुबान से निकली बात भी कहीं वापस आती है। पहले अंतुले फिर मोदी और अब गफूर...अगर बोलने का इतना ही शौक है तो पहले अपने पद की गरिमा और बयान की अहमियत तो समझ लेनी चाहिए वर्ना तो अपनी फजीहत तो करा ही रहे हैं, देश की कूटनीति को भी जाने-अनजाने पाकिस्तानी भाषा बोलकर बैकट्रैक पर डाल रहे हैं। वैसे ही ज्यादा और बेतुका बोलने की बीमारी काफी खतरनाक है। जिसे देखिए बोले ही जा रहा है...मुतालिक लड़के-लड़कियों को साथ देखकर शादी कराने या राखी बंधवाने की भाषा बोल रहे हैं तो रेणुका पब भरो आंदोलन का नारा बुलंद कर रही हैं। एक एनजीओ गुलाबी चड्ढी मुतालिक को भेजने का नारा बुलंद कर रहा है तो अमर सिंह को समझ ही नहीं आ रहा कि सीबीआई की जांच को लेकर कांग्रेस को बोलना है या जांच एजेंसी को...लेकिन, हमें-आपको बोलना चाहिए, ऐसे बोलों के खिलाफ...और वो भी खुलकर....वैसे लालू जी के अंतरिम रेल बजट पर भी सब बोल रहे हैं। बिहार में आरजेडी जय जयकार कर रही है तो विपक्ष इसे वोट बैंक का बजट बता रहा है। लेकिन, जनता तो खुश है क्योंकि मंदी में किराए कुछ तो घटे ही, लालू ने बैलेट के लिए बुलेट ट्रेन चलाने का सपना भी दिखा दिया...
आपका
परम

Monday, February 9, 2009

बड़े काम का कार्ड

कार्ड बड़े काम की चीज है, ताश खेलते वक्त काम का पत्ता हाथ लग जाए तो खिलाड़ी का चेहरा जीत की खुशी से चमक उठता है। लेकिन, प्लेइंग कार्ड के अलावा एक और कार्ड को भी हम पहचानने लगे हैं। अलग-अलग चैनलों पर सजी-संवरी युवतियों के हाथ में अक्सर दिखने वाले ये कार्ड तो इतने दमदार होते हैं कि मैच से पहले ही जीतने वाली टीम का नाम बता देते हैं..चुनाव से पहले ही किसकी सरकार बनेगी ये भी बता देते हैं। इस कार्ड को टैरो कार्ड कहा जाता है और इसे बताने वाले हमारा-आपका भविष्य बताकर अपना भविष्य बना रहे हैं। लेकिन, एक कार्ड ऐसा भी है, जो सियासी दलों और नेताओं के इस्तेमाल में आता है। इसे कहते हैं सेक्यूलर कार्ड...सबसे पहले इसे कांग्रेस ने लपका..आज़ादी की लड़ाई के दौरान ये कार्ड जिन्ना साहब को पसंद नहीं आया तो उन्होंने पाला बदल लिया, कार्ड कांग्रेस के ही हाथ रहा। बदलते वक्त के साथ इस कार्ड की कई जेरॉक्स कॉपी करा ली गईं। तबसे ये कार्ड हमारे देश में सियासी दोस्त और दुश्मन तय करते हैं। लेफ्ट के पास भी इसकी एक कॉपी है, सो पिछली बार कांग्रेस के कार्ड से इसका मिलान हुआ और केंद्र में सरकार बन गई। साढ़े चार साल की सत्ता के बाद जब लेफ्ट का मोहभंग हुआ तब भी इसी कार्ड की दूसरी कॉपी ने सरकार बचाई। याद कीजिए..विश्वासमत में कैसे मुलायम सिंह की पार्टी कांग्रेस के पाले में अचानक से टपक गई थी। इससे पहले जब एनडीए की सरकार बनी थी तो बीजेपी के कई साथी बीजेपी के साथ हो लिए थे, वो इसलिए कि बीजेपी बिना इस कार्ड के भी दमदार दिख रही थी। लेकिन, इस कार्ड की अहमियत इसी से समझी जा सकती है कि उन्होंने अपना कार्ड बीजेपी को नहीं दिया और ना ही इसकी कॉपी ही करने की इजाजत दी। कार्डधारक दूसरी पार्टियों ने जब ये पूछा कि बीजेपी के पास तो ये कार्ड था ही नहीं तो हाथ मिलाने का मतलब ये है कि उसके साथी दलों के कार्ड पर भी कालिख है। ऐसे में समाधान ये निकाला गया कि जो प्रधानमंत्री बनेगा यानी वाजपेयी, वो भले ही बिना इस कार्ड वाली पार्टी में है, लेकिन कार्ड पाने की पूरी योग्यता उसमें है। लिहाजा वाजपेयी प्रधानमंत्री भी बन गए। अब आडवाणी जी के मन में मलाल उठा सो वो सरहद पार जाकर जिन्ना साहब की मज़ार पर मत्था टेक कर इस कार्ड की दावेदारी ठोक दी। बदकिस्मती से पासा उलटा पड़ा.. कार्ड तो फिर भी नहीं मिला, फजीहत ऊपर से हो गई। हाल ही में जब ये कार्ड लेकर मुलायम सिंह कल्याण से मिले तो कांग्रेस को जुकाम हो गया। सीधा सवाल दागा..आपके पास तो कार्ड है, कल्याण के पास नहीं और ना ही हम कल्याण को ये कार्ड हासिल करने देंगे। अब एक बार फिर चुनाव आ गए हैं। बीजेपी फिर राम नाम के सहारे अपनी नैया चुनावी बैतरणी में उतारने का ऐलान कर चुकी है। राजनाथ से लेकर आडवाणी तक मंदिर-मंदिर, राम-राम जप रहे हैं। साथी दल आगाह कर रहे हैं, अपना तो कार्ड नहीं है, हमारा क्यों छिनवाने पर तुले हो...और सोनिया जी तो सीधा कह ही रही हैं कि राम के नाम पर राजनीति करने वाले आतंकवाद का सामना नहीं कर सकते...देश नहीं चला सकते। जाहिर है, अगले चुनाव और अगली सरकार में फिर इसी कार्ड की अहम भूमिका होने जा रही है। और चलते-चलते आपको बता दें कि सात समंदर पार भी चलता है ये कार्ड ब्लिकुल वीज़ा कार्ड की तरह...याद कीजिए...ओबाम ने शपथ लेते समय कैसे कहा था...ईसाई, मुस्लिम, यहूदी और हिंदू सभी अमेरिका में समान हैं...ये अलग बात है कि शपथ उन्होंने फिर भी बाइबिल हाथ में लेकर ली थी...खैर, उनका मसला..वो जानें...हमें और आपको तो ये तय करना है कि वोट पर इस कार्ड का क्या असर होगा..वही सेक्यूलर कार्ड...
आपका
परम

Friday, February 6, 2009

..बदलेंगे हम?

क्या मुस्लिम लड़कियों को लड़कों के साथ पढ़ने का अधिकार नहीं है? आपको सवाल अटपटा लग रहा होगा, लेकिन आपको ये ख़बर और भी अटपटी लगी होगी कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड ने इसपर पाबंदी लगा दी है। वजह क्या बताई गई है, ज़रा ये भी सुन लीजिए...'इस्लाम में पर्दा काफी अहम है और सह-शिक्षा यानी को-एजुकेशन से बेपर्दगी को बढ़ावा मिलता है, जो शरीयत के खिलाफ़ है।' चलिए रहम ये किया गया है कि तहतानिया यानी पहले से लेकर पांचवें क्लास और फौकानिया यानि छठे से लेकर आठवें क्लास तक की पढ़ाई साथ-साथ करने को बंदिशों से मुक्त रखा गया है वर्ना ना जाने कितनी बच्चियां अपना नाम तक लिखना नहीं सीख पातीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि मदरसों में अभी भी बड़ी तादाद में मुस्लिम बच्चियां तालीम हासिल करती हैं क्योंकि एक तो इनमें पढ़ाई का खर्च कम आता है और दूसरे कि रूढ़िवादी ख्यालात के लोगों को मदरसों पर यकीन भी ज़्यादा होता है। और उत्तर प्रदेश में तो मुस्लिम आबादी भी ज़्यादा है तभी तो यहां करीब उन्नीस सौ मदरसे चलते हैं। इनमें कुल सात लाख बच्चे तालीम हासिल करते हैं। आवाज़ मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ओर से भी इस पाबंदी के खिलाफ उठ रही है, बिल्कुल उसी तरह जैसे तरह-तरह के फतवों को लेकर उठती रही है। लेकिन, सवाल ये भी उठता है कि क्या कभी सोच नहीं बदलेगी? आखिर कबतक ऐसा चलता रहेगा? क्या अपने पैरों पर खड़े होने का हक़ इन मासूम लड़कियों को नहीं है? सोचने वाली बात ये है कि अगर लड़कों के साथ पढ़ने से बेपर्दगी को बढावा मिलने का डर कुछ कठमुल्लाओं को सता रहा है तो उनके पढ़-लिखकर नौकरी करने या व्यवसाय करने पर वो क्या ख़ाक तैयार होंगे। हर बात में मजहब को शामिल करना किस हद तक उचित है? ज़रा सोचिए
आपका
परम

Monday, February 2, 2009

आसमां पर उड़ने वाले...

एक मशहूर गाना है...आसमां पर उड़ने वाले धरती में मिल जाएंगे। कितने सटीक शब्द हैं इस गाने के...काश कि ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों को इतनी हिंदी आती कि वो इसका अर्थ समझ पाते (वैसे थोड़ी-बहुत आती भी है तभी तो हरभजन की गाली को समझकर बवाल खड़ा कर दिया था) । कौन भुला सकता है इस टीम की बदतमीजियों को...जब रिकी पॉंटिंग ने बुजुर्ग नेता, केंद्रीय मंत्री और दुनिया के सबसे अमीर और रसूखदार क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष को महज ग्रुप फोटो खिंचाने के लिए मंच से धकिया दिया था। कौन भुला सकता है जब इस टीम के खिलाड़ी दूसरी टीमों के खिलाड़ियों को मैदान पर उकसा-उकसा कर तनाव में लाते थे और फिर उसके आउट होने पर जश्न मनाते थे। लेकिन, अब देखिए क्या हो रहा है हाल? पहले भारत आए तो पिट कर गए और अब अपने ही घर में एक के बाद एक हार मिलती जा रही है। न्यूज़ीलैंड ने रविवार को जिस तरह से पर्थ वन डे में कंगारुओं को पस्त किया, उसके बाद तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम है। कप्तान पोंटिंग भी दो मैच में रेस्ट करने पर मजबूर हैं। वैसे बादशाहत तो पहले ही छिन गई थी, जब दक्षिण अफ्रीका ने पांच वन डे मैचों की सीरीज़ में चार-एक से हराकर मुकाबले को एकतरफा बना दिया था। सीरीज़ तो गई ही, नंबर वन की रैंकिंग की जिस गुमान में ये चूर थे, वो भी चकनाचूर हो गई। वापस लौटने का मौक़ा न्यूज़ीलैंड से सीरीज़ जीतने की है, लेकिन आगाज़ ही हार के साथ हुआ है। वैसे इसमें कोई शक नहीं कि ऑस्ट्रेलियाई टीम में पासा पलटने का पूरा माद्दा है और उसके कई खिलाड़ी अपने बूते मैच का रुख पलट सकते हैं। लेकिन, इन हारों से उसे सबक ज़रूर लेनी चाहिए क्योंकि यही टीम पहले हार को पचा नहीं पाती थी। बल्ले और गेंद की जगह जुबानी जंग छेड़ दिया करती थी। और यही वजह है कि उसकी हर हार से क्रिकेट प्रेमियों के दिल को तसल्ली मिलती है। हां, एक चैंपियन की हार दुखद होती है, लेकिन ऑस्ट्रेलियाई हार दुखद नहीं लगती क्योंकि उन्होंने अपने व्यवहार से इस खेल की भावना को ही ठेस पहुंचाई है। वैसे ऑस्ट्रेलिया से इससे भी बड़ी खुशी की ख़बर ये आई कि सानिया मिर्जा और महेश भूपति की जोड़ी ने मिक्सड डबल्स का खिताब जीत लिया। सानिया को पहले ग्रैंड स्लैम पर बधाई..और बधाई यूकी भांबरी को भी, जिन्होंने पहली बार ऑस्ट्रेलियाई ओपन सिंगल्स का जूनियर वर्ग का खिताब जीता। तो दुनिया तैयार रहे...टेनिस में भी भारत टक्कर देने की स्थिति में आ गया है। जय हो...
आपका
परम