Wednesday, August 19, 2009

जसवंत को निगला जिन्न

जिन्ना का जिन्न जसवंत को निगल गया। कहां तो बीजेपी ने उन्हें हनुमान का दर्जा दिया था, कहां वो रावण बना दिए गए। जसवंत 2001 में आउटस्टैंडिंग पार्लियामेंटेरियन अवॉर्ड से नवाजे गए थे। एनडीए सरकार में विदेश मंत्री, वित्त मंत्री औऱ जॉर्ज के तहलका कांड में फंसने के बाद कुछ समय के लिए रक्षा मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन, ये तमाम तमगे उनकी रक्षा करने में नाकाम साबित हुए। कहने वाले इसे बीजेपी में बदलाव की शुरुआत मान रहे हैं। लेकिन, ज़रा इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करें कि जब आडवाणी को जिन्ना प्रेम पर पार्टी से नहीं निकाला गया तो जसवंत को क्यों ? दरअसल, आडवाणी एक तो बीजेपी में जसवंत की तुलना में कहीं ज्यादा कद्दावर नेता हैं और दूसरे ये कि चाहे पार्टी का कितना भी बुरा दौर क्यों नहीं चल रहा हो, इसे सत्ता तक लाने में आडवाणी की रथ यात्रा ही निर्णायक रही थी। इसके अलावा सच ये भी है कि मीठे-कड़वे रिश्तों के बावजूद आडवाणी संघ से कभी उतने दूर नहीं गए कि वापस नहीं लौट सकें। लेकिन, जहां तक जसवंत का सवाल है, शुरू से ही वो संघ से दूर रहे या यूं कहें कि बीजेपी में होते हुए भी कभी संघ से उनकी करीबी नहीं रही। लिहाजा संघ का चाबुक उन्हें पहली ही वार में चित कर गया। याद करें किस्सा उमा भारती का...आडवाणी को खुलेआम ललकारा, सार्वजनिक तौर पर बखेड़ा खड़ा किया, पार्टी अनुशासन को तोड़ा और सस्पेंड की गईं...सस्पेंड किए जाने के कुछ महीने बाद फिर बीजेपी ने निलंबन वापस लिया...ये अलग बात है कि फिर उन्होंने बगावत कर दी और इसके बाद उन्हें विदा कर दिया गया। वैसे जसवंत ने तीन साल पहले भी किताब लिखी थी, बवाल तब भी मचा था..जसवंत ने जिक्र किया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय से अमेरिकी एजेंसियों को ख़बरें लीक की जाती हैं। निशाने पर थे पीवीनरसिम्हा राव...इसलिए बीजेपी को नागवार गुजरने जैसा कुछ नहीं लगा। लेकिन, इस बार तो जसवंत पर कार्रवाई से बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस संतुष्ट नज़र आ रही है। हो भी क्यों ना...नेहरू पर उंगली उठाने पर जो बवाल कांग्रेस को मचाना था, वो काम खुद बीजेपी ने ही जिन्ना की तारीफ की सज़ा देकर कर दी।
आपका
परम

Thursday, August 13, 2009

किस-किस का हो वध?

सबसे पहले तो आप सभी को जन्माष्टमी की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं...इस बार महाराष्ट्र में तो स्वाइन फ्लू ने इस त्योहार का रंग फीका कर दिया, लेकिन बाक़ी जगह सबकुछ हर साल की ही तरह होगा। कुछ मंदिरों में झांकी भी लगाई गई है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण को कंस की जगह स्वाइन फ्लू का वध करते दिखाया गया है। एक चैनल पर चल भी रहा था..इस राक्षस का वध करो...दिल में एक सवाल उठा..किस-किस का वध करेंगे भगवान..यहां तो राक्षसों की पूरी फौज़ तैनात है। सीरियल में दिखा था..भयानक दिखने वाले राक्षस-राक्षसी तरह-तरह के वेश में आते थे और कृष्ण उन्हें मारकर उनका उद्धार करते थे। लेकिन, अब तो इन राक्षसों को पहचानना भी मुश्किल है। कोई ऑटो चालक के वेश में आता है, महिला सवारियां बैठाता है और बलात्कार के बाद सारा सामान लूटकर फरार हो जाता है। कोई गैस सिलेंडर चेक करने वाला बनकर आता है, घर का सारा माल समेटता है और घर में मौजूद लोगों को ज़ख्मी करके चलते बनता है। कोई नौकर के वेश में होता है, खाता है-पीता है, तनख्वाह लेता है और मौका मिलने पर घर में मौजूद लोगों की जान लेकर सामान बटोर लेता है। इनसे भी बच गए तो उनसे कैसे बचेंगे, जो अपने बनकर आते हैं और दुश्मनों को मात कर जाते हैं। हाल ही में दिल्ली में एक ऐसा ही वाकया सामने आया। एक बुजुर्ग ने फिरौती के लिए अपने ही नाती को अगवा कर लिया। और बच्चे के मामा ने इसमें अपने पिता का साथ दिया था। यानी नाना और मामा भेष बदलकर अगवा करने वाले राक्षस बन गए। अब बेचारा बच्चा कृष्ण तो था नहीं और ना ही ये सतयुग ही था...फिर भी बच गया तो इसे कृष्णलीला ही मानिए क्योंकि दिल्ली में ही दोस्तों ने जिस तरह रिभु को अगवा भी किया, उसके घरवालों से लाखों की फिरौती भी वसूली और फिर मारकर भी फेंक दिया..उससे तो इन राक्षसों से रहम की उम्मीद भी नहीं कर सकते। हां, एक अच्छी ख़बर जन्माष्टमी से ठीक दो दिन पहले ज़रूर आई, जब बिहार की एक अदालत ने एक पूर्व मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के ग्यारह साल बाद कई बाहुबलियों को कानून की ताकत दिखा दी। सूरजभान, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला जैसे बाहुबलियों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। वैसे बृजबिहारी भी दूध के धुले नहीं थे। दुबे हत्याकांड में उनका ही हाथ था और मज़ेदार बात तो ये है कि जिस दुबे को मारने में बृजबिहारी का हाथ था, वो भी गैंगस्टरों के सरगना बताए जाते हैं..राजनीति के राक्षसों में उनका भी नाम शुमार है। खैर...भगवान वध करें, इस जन्माष्टमी पर...भ्रष्टाचार के राक्षस का, महंगाई के राक्षस का, मंदी के राक्षस का..इनसानों के भेष में छिपे हर राक्षस का और हां स्वाइन फ्लू के राक्षस का भी...
बहुत-बहुत बधाई
आपका
परम

Tuesday, August 11, 2009

ये बाबा...वो बाबा

साधु-संतों का हमारे देश में बड़ा मान है। जहां जाते हैं, लोग पांव छू-छूकर आशीर्वाद लेते हैं और उनकी वाणी सुनकर जीवन को धन्य समझते हैं। स्वाइन फ्लू की चपेट में धीरे-धीरे आ रहे अपने देश में भी जब बाबा रामदेव अचानक रामवाण के साथ टीवी न्यूज़ चैनलों पर अवतरित हुए तो उन्हें सुनने के लिए दर्शकों ने पूरा धैर्य बनाए रखा।चैनल बदल-बदल कर देखा और सुना। इसमें कोई हर्ज भी नहीं क्योंकि अगर कोई सुझाव मुफ्त में मिले तो उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है। अगर गुलैठी और तुलसी जैसी सुलभ चीजों से इस बीमारी से बचा जा सकता है तो फिर क्यों आयातित टैमीफ्लू के चक्कर में देर करके जान गंवाई जाए। बाबा ने मुद्दा उठाया कि जो देश हैजा, चेचक, प्लेग जैसी महामारियों से पहले भी कई बार सामना कर चुका है, वो स्वाइन फ्लू को लेकर इस बार इतना दहशत में क्यों नज़र आ रहा है ? बेबसी नज़र आ रही है चारों ओर, बेबस नज़र आ रही है सरकार भी...पहले तो ढिलाई बरती और बाहर से बीमारी को एयरपोर्ट के रास्ते देश के कोने-कोने तक पहुंचा दिया और अब सांप निकलने के बाद लकीर पीट रही है। खैर, जो हुआ, सो हुआ...अब तो जो सामने है, उससे निपटना है, निपट ही रहे हैं वो तमाम लोग, जो महंगाई से अधमरे होने के बाद सूखे को लेकर औऱ मरे जा रहे हैं। और रही-सही जान स्वाइन फ्लू ना हो जाए, इस आशंका से निकली जा रही है। शायद बाबा की वाणी हम अधमरों, फिक्रमंद लोगों में कुछ नई जान फूंके, नई उम्मीद दिखाए...वैसे स्वाइन फ्लू, मंदी, महंगाई, सूखे से कुछ बाबा लोग निश्चिंत भी रहते हैं। नमूना दिखा, उड़ीसा में...नागपंचमी का दिन था। पुरी के साक्षीगोपाल मंदिर में शिल्पा शेट्टी और शमिता शेट्टी पहंची थी। सठियाये पुजारी बाबा को शिल्पा की सूरत में शायद मेनका, उर्वशी नज़र आई और उन्होंने शिल्पा के गाल पर चुंबन जड़ दिया। शिल्पा सकपकाई, सकपकाए वो तमाम लोग, जो वहां मौजूद थे। बाबा का ये सांसारिक 'छिछोरा' रूप किसी ने देखा नहीं था। अगर बाबा पहले भी दूसरे भक्तों, यहां तक कि बच्चों को भी इसी तरह आशीर्वाद में चुंबन देते तो बात और थी। लेकिन, उनकी हरकतें कुछ और बयां कर रही थीं। शायद यहां लिखना ठीक भी नहीं...वैसे media khabar.com पर हाल ही में टीवी पत्रकार देवेंद्र शर्मा जी ने इस बारे में विस्तार से लिखा भी था। मैंने पहली बार वहीं तस्वीर भी देखी थी। आपने नहीं देखी हो तो एक बार वो तस्वीर ज़रूर देखिए, बाबा के चेहरे से पूरी कहानी समझ जाएंगे।
अरसे बाद आपसे बात करने का मौका मिला है..उम्मीद है एक बार फिर से लगातार बात होती रहेगी...पहले की ही तरह..
आपका
परम

Thursday, March 19, 2009

किस पर करें भरोसा?

हम जिसे शर्मिंदगी की हद कहते हैं, क्या वो वाकई हद है या फिर हद भी अपने हद की ही तलाश कर रही है। लगता तो कुछ ऐसा ही है। शिमला में एक मूक-वधिर स्कूल में चार शिक्षकों ने उन बच्चियों के साथ लगातार बलात्कार किया, जो ना तो बोल सकती हैं, ना सुन सकती हैं। सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर लड़कियों के स्कूल में पुरुष शिक्षक आखिर रखे ही क्यों गए ? जब इस तरह की घटनाएं अक्सर सामने आती रही हैं तो बार-बार जानबूझकर क्यों इस तरह की असावधानी बरती जाती है? वैसे स्कूलों में अगर इस तरह की वारदात सामने आती है तो शिक्षकों को कलयुगी गुरू कहकर हम गुस्सा निकाल लेते हैं, लेकिन घरों में इन बेटियों को कौन बचाएगा? मुंबई जैसे आधुनिक शहर में एक बाप अपनी बेटी से नौ साल तक लगातार बलात्कार करता रहा और बच्ची की मां सबकुछ जानते हुए भी चुप रही। बाप को किसी तांत्रिक ने ये कहा था कि ऐसा करने से वो अमीर बन जाएगा और लड़की की मां को भी अमीर बनने का चस्का इतना भा रहा था कि बेटी को पति के आगे परोसना भी गंवारा हो गया। इतना ही नहीं, मीरा रोड इलाके के इस शख्स ने अपनी छोटी बेटी से भी बलात्कार करने की कोशिश की। तांत्रिक भी उससे पहले उसकी छोटी बेटी से बलात्कार कर चुका था। बाप, बीवी और तांत्रिक के मुताबिक ये बलात्कार नहीं था, बल्कि लक्ष्मी का भोग था। सुनकर, पढ़कर शर्मिंदगी भी शर्मसार हो जाती है, लेकिन इन तीनों को कोई शर्म नहीं आती। अब बच्चियों के मां-बाप और तांत्रिक तीनों जेल में हैं। लेकिन, सवाल ये है कि दोनों मासूम बच्चियों का क्या होगा? जिस पिता के साया को पाकर लड़कियां खुद को जमाने की बुरी नज़रों से महफूज महसूस करती हैं, उनके पिता ने ही ज़िंदगी तबाह करके रख दी। घर से बाहर निकलते ही लड़कियां ये दुआ करती हैं कि वो सही सलामत घर लौट आएं। कभी कार में बलात्कार तो कभी कार से घसीटकर बलात्कार..किसी से दोस्ती हुई तो दोस्त ने ही दगा देकर कुकर्म कर दिया। आखिर किस पर वो भरोसा करें? कानून अपनी जगह है..वो काम भी अपने ही हिसाब से करेगा, लेकिन इस मानसिक विकृति का इलाज समाज को ही करना होगा क्योंकि कानून हर किसी की हर जगह हिफाजत नहीं कर सकता।
आपका
परम

Monday, March 16, 2009

वरुण की छटपटाहट

विरासत का असर ज़्यादा गहरा होता है या सियासत का..वरुण गांधी के पीलीभीत में दिए गए भाषणों के बाद यही सवाल किया जा रहा है। कांग्रेस कह रही है कि वरुण बीजेपी के नेता हैं, बीजेपी के उम्मीदवार हैं, इसलिए बीजेपी की जुबान बोल रहे हैं। दूसरी ओर, बीजेपी के बाकी नेता तो जुबान नहीं खोल रहे, लेकिन मुख्तार अब्बास नक़वी की नज़र में वरुण का बयान गांधी-नेहरू परिवार की विरासत से बनी सोच का नतीज़ा है। दरअसल सात और आठ मार्च को वरुण ने यूपी के पीलीभीत में दो जगह चुनाव सभा की थी। इसमें उन्होंने कहा था कि अगर गलत तबके का कोई आदमी हिंदुओं की ओर हाथ उठाएगा तो उसे काट दिया जाएगा। समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के दिखने में लादेन जैसा होने की बात कही...हिंदुओं से नाइंसाफी का जिक्र किया और जयश्रीराम के नारे लगाए। आरोप है (और ऑडियो, वीडियो से इसपर मुहर भी लगती दिख रही है) कि वरुण ने कुछ अपशब्दों का भी इस्तेमाल किया। ख़ैर चुनाव आयोग ने लोकल इंटेलिजेंस की रिपोर्ट पर उन्हें नोटिस थमा दिया.. वरुण का कहना है कि उन्होंने ऐसा कुछ कहा ही नहीं, जिससे आचार संहिता का उल्लंघन हो। लेकिन, ये मामला सिर्फ सियासी नहीं है। जो लोग वरुण और पीलीभीत को जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि मेनका गांधी के बेटे को यहां से जीतने में कोई मुश्किल नहीं होने जा रही। फिर वरुण ने ये ज़हरीली जुबान क्यों उगली? दरअसल, ये छटपटाहट है अपनी पहचान बनाने की..इंदिरा गांधी की बहू होने के बावजूद मेनका को अपनी पहचान बनाने के लिए अपना संघर्ष करना पड़ा था, जबकि सोनिया को विरासत में ही ये पहचान हासिल की गई। आज सोनिया के बेटे राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की बात चलती है, लेकिन वरुण का कद कहीं नहीं ठहरता। एक परिवार के होने के बावजूद दोनों भाइयों की पहचान अलग है तो दिल को कुछ न कुछ तो सालता ही है। वरुण अपने भाषण में बार-बार ये कहते दिखाई और सुनाई दे रहे हैं कि हिंदुओं की ओर जो हाथ उठेगा, वरुण उस हाथ को काट डालेगा। लोगों से कह रहे हैं कि अगर कोई थप्पड़ मारे तो हाथ काट दो ताकि वो दोबारा थप्पड़ नहीं मार सके। सोचकर देखिए कि वो किस हाथ की बात कह रहे हैं...किसी मुसलमान का या फिर कांग्रेस का? आखिर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह भी तो हाथ ही है। और जहां तक आचार संहिता के उल्लंघन का मामला है, हर पार्टी, हर नेता इसका अचार बनाकर आराम से खा रहा है। शिवराज सिंह चौहान बिजली बिल पर फोटो छपवा रहे हैं तो तृणमूल कांग्रेस विकलांगों को साइकिल बांट रही है...और मुलायम, जयाप्रदा, गोविंदा करारे नोट बांट रहे हैं। चलिए, चुनाव आयोग का सिरदर्द चुनाव आयोग संभाले...कम से कम उनका तो कुछ भला हो जाए, जिन्हें भागते भूत की लंगोट की तरह कुछ हाथ लग रहा है वर्ना तो पूरे पांच साल यही नेता उनसे और उनके हक से कुछ ना कुछ छीनते ही रहते हैं।
आपका
परम

Friday, March 13, 2009

बिटिया ना बिसराइए

दिल्ली से सटे नोएडा के एक गांव की पांच बेटियां और उसी गांव की एक बहू ने एक साथ एक ही साल दिल्ली पुलिस की भर्ती परीक्षा पास कर अपने लिए वर्दी पक्की कर ली है। बहुत जल्दी गांव की ये बेटियां वर्दी में होंगी। ये इतना आसान नहीं था, क्योंकि गांव के माहौल में इनके परिवार के लोग पहले तो लड़कियों और बहुओं की नौकरी के पक्ष में ही नहीं थे और अगर थोड़ा-बहुत मन बना भी रहे थे तो स्कूल टीचर, सिलाई-बुनाई और ब्यूटीशियन से आगे तक नहीं सोच पा रहे थे। बावजूद इसके इन लड़कियों ने अपना सपना पूरा किया। अंशुमाली जी ने पाकिस्तान में महिलाओं को आईकार्ड पर पाबंदी वाले तालिबान के फरमान के बारे में मेरे लेख पर अहम टिप्पणी दी है कि भारत में भी बहुएं जलाई जाती हैं, दहेज उत्पीड़न होता है, बलात्कार होते हैं और महिलाएं दबी कुचली हैं। हकीकत भी यही है, जो बेहद शर्मनाक है। जिस देश में मातृ शक्ति की पूजा सदियों से होती रही है, उसी देश की ऐसी स्थिति देखकर सिर शर्म से झुक जाता है। लेकिन, यहीं वेदकालीन भारत में लोपामुद्रा जैसी तेजस्विनी भी हुईं और यहां तक कि मुस्लिम सल्तनतों के शासन में रजिया भी सुल्तान बनीं। यहीं किरण बेदी जैसी जांबाज महिला आईपीएस भी हुईं। और आज की तारीख में तो आगे बढ़ने वाली महिलाओं के लिए तो तरक्की के तमाम रास्ते खुले हैं। एक चैनल है कलर्स...वो इंटरटेनमेंट के साथ-साथ बड़े ही सशक्त तरीके से महिलाओं से जुड़े मामले उठा रहा है। इसके सीरियल बालिका वधू में जहां बाल विवाह, बाल विधवा जैसे मुद्दे उठे हैं, वहीं इसी चैनल के नए सीरियल ना आना इस देश लाडो में नवजात लड़कियों की हत्या का मामला उठाया जा रहा है। देश में पुरुष और महिला का अनुपात गिरता जा रहा है। एक हज़ार पुरुष के बदले महज सवा नौ सौ महिलाएं हैं और कुछ राज्यों में तो हालात और भी ख़राब हैं। इसके बावजूद कानूनन रोक को दरकिनार कर भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। मेरे एक मित्र हैं, जो इन दिनों बेहद तनाव में हैं। वजह ये है कि उनकी एक बेटी है और पत्नी को हर कीमत पर बेटा चाहिए। वो अपनी पत्नी को ये बताना नहीं चाहते कि पहली संतान के जन्म के वक्त ही डॉक्टर ने दूसरे बच्चे के बारे में सोचने तक से मना कर दिया था कि खतरा हो सकता है। लेकिन, सोचने वाली बात ये है कि क्या वाकई बेटे की इतनी ज़रूरत है जिसकी भरपाई बेटियां नहीं कर सकतीं। ईमानदारी से कहूं तो कम से कम मुझे नहीं लगता कि घर पर कभी-कभार पैसे भेजने या साल में एक-दो बार चक्कर काटने के अलावा बेटा होने का फ़र्ज वाकई निभा रहा हूं। यहां तक कि मेरी बहनें मुझसे ज्यादा पापा से फोन पर बात करती हैं। शायद यही अहसास मुझे अपनी इकलौती बेटी को इकलौती ही बनाए रखने की प्रेरणा देता है। खैर, लगता है भटक गया...इसलिए फिलहाल माफी के साथ विदा लेना ही उचित होगा..
आपका
परम

Sunday, March 8, 2009

शुक्र है ये इंडिया है..

महिलाओं की कोई पहचान नहीं होती इसलिए उन्हें आईकार्ड की क्या ज़रूरत है ? पाकिस्तान में तालिबान ने यही नया फरमान सुनाया है। और साथ ही ये हुक्म भी दिया है कि अगर कोई महिला अपना आईकार्ड लेने सरकारी दफ्तरों में जाती है या सरकारी दफ्तर उन्हें आईकार्ड जारी करते हैं तो दोनों को गंभीर नतीज़े भुगतने पड़ेंगे। ख़ास बात ये है कि ये फरमान उस दिन जारी किया गया, जब पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रही थी। अमेरिका ने रूस के खिलाफ अफगानिस्तान में अल क़ायदा को खड़ा किया और वही अल क़ायदा बाद में अमेरिका के लिए सबसे घातक बन गया। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के खिलाफ तालिबान को खड़ा किया और अब तालिबान ही अजगर बनकर पूरे मुल्क को निगलने के लिए मुंह खोले हुए है। तालिबान महज एक आतंकी संगठन का नाम नहीं है, बल्कि ये उस सोच का भी नाम है, जो इस संगठन की तरह महज अफगानिस्तान या पाकिस्तान तक सिमटा नहीं है। जब आतंक के खिलाफ जंग की अगुवाई का दावा करने वाले अमेरिका अल कायदा और तालिबान जैसे संगठनों के आगे घुटने टेक रहा है तो इस सोच के बढ़ते दायरे से हम कब तक बच पाएंगे ? और यही वजह है कि इन आतंकियों की ताकत बढ़ती जा रही है क्योंकि वो अपनी सोच सामान्य सोच वाले लोगों के जेहन में डालने में कामयाब हो रहे हैं। ज़रा सोचकर देखिए कि कश्मीर के लोग अगर पाकिस्तानी आतंकियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद नहीं करते तो क्या घाटी में आज़ादी के छह दशक बाद भी आतंकवाद ज़िंदा रहता ? अगर स्वात या वजीरिस्तान के लोग ठान लें तो क्या मुट्ठी भर तालिबान वहां की पूरी आबादी की आज़ादी पर काबू कर सकते हैं ? लेकिन, हकीकत में ऐसा होता नहीं...जन्नत में हूर मिलने के सपने दिखाकर फिदायिन बनाकर उन्हें मरने पर मजबूर कर दिया जाता है ताकि एक जान की कीमत पर लाशों के अंबार लगाए जा सकें। आतंकी आका हर किसी की पहचान मिटाना चाहते हैं ताकि अपनी पहचान बना सकें। पहचान किसी संस्कृति की, पहचान किसी हुकूमत की, पहचान उन आतंकियों की भी, जो महज फिदायिन या जेहादी बनकर रह जाते हैं। ये सिर्फ अपनी पहचान बनाना चाहते और जानते हैं..पहचान आतंक की..ऐसे में भला इनके होते महिलाओं की पहचान की क्या बिसात? शुक्र है कि भारत में ऐसी सोच वाले लोगों की तादाद अभी इतनी बढ़ी कि वो तालिबान जैसी सोच यहां थोप सकें और जिन्होंने ऐसी कोशिश की भी है, उसका अंजाम वो खुद भुगत चुके हैं। वर्ना क्या होता, ये सोचकर भी दिमाग सोचना बंद कर देता है।
आपका
परम

Saturday, March 7, 2009

कौन कहता है चूक गए?

जब भी लोग ये मानने और कहने लगते हैं कि सचिन चूक गए हैं, मास्टर अपने बल्ले से दे देता है ऐसा करारा जवाब कि सबकी चुप्पी बंध जाती है। ये कहना बिल्कुल सच है कि सचिन के बल्ले में पहले जैसी धार नहीं रही, लेकिन ये कहना भी बिल्कुल गलत कि वो अब चूक चुके हैं। न्यूज़ीलैंड में सचिन ने तीसरे वन डे में जिस तरह से सेंचुरी जमाई वो काबिलेतारीफ है। करियर के आखिरी दौर में न्यूज़ीलैंड की धरती पर पहला शतक...अब इसे इस खिलाड़ी की शुरुआत कहेंगे या अंत ? इससे पहले ऑस्ट्रेलिया की उछाल भरी पिचों पर भी सचिन ने लगातार दो शतक जमाकर इस मुगालते को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था कि फाइनल में मास्टर का बल्ला नहीं चलता। सचिन ने अपनी ज़िंदगी में रिकॉर्ड के अंबार लगाए..यहां तक कि कई बार गेंदबाज़ी के ज़रिये भी इस क्लास बल्लेबाज़ ने टीम को जीत दिलाई। इन सबसे ऊपर सचिन अपनी नेकदिली के लिए भी मशहूर हैं। ना जाने कितनी बार इस खिलाड़ी को अंपायर के गलत फैसले का शिकार होना पड़ा, लेकिन कभी भी मैदान पर नाराज़गी जाहिर करते उन्हें नहीं देखा गया। अब सचिन की बस एक आस बाकी है, भारत के लिए वर्ल्ड कप जीतना और उनके जज्बे को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उनके लिए नामुमकिन कुछ भी नहीं...तो हम, आप और तमाम क्रिकेट प्रेमियों को भी चाहिए कि अगले दो साल इस खिलाड़ी को दबाव से मुक्त होकर खेलने दिया जाए...देश के लिए बहुत खेल चुके, अब अपने लिए, अपने हिसाब से भी तो खेलने दें...जिसने क्रिकेट के जरिये देश को इतना सम्मान दिलाया, क्या हम उसे उसकी इच्छा के हिसाब से क्रिकेट को अलविदा कहने का मौका भी नहीं देंगे...
आपका
परम

Saturday, February 28, 2009

कहां-कहां निपटें?

इन दिनों तमाम चैनल और अखबार तालिबान, पाकिस्तान और अल क़ायदा की रट लगा रहे हैं और पिछले तीन दिन से देश के अलग-अलग राज्यों में अचानक से बढ़े नक्सली हमले पर किसी की तवज्जो ही नहीं जा रही। शायद मीडिया की नज़र में आतंकवाद ज्यादा बड़ा होता है क्योंकि उसके निशाने बड़े होते हैं, जबकि नक्सलवाद सुनने में ही डाउनमार्केट लगता है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि नक्सली हिंसा ने भी आतंकवादी हमलों से कम क़हर नहीं बरपाया है। नक्सली नेटवर्क भी आतंकी नेटवर्क से कम फैला हुआ नहीं है। आंध्र प्रदेश से लेकर उड़ीसा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के कुछ इलाके और पश्चिम बंगाल तक इसकी चपेट में हैं। ख़ास बात ये है कि जब-जब चुनाव होने वाले होते हैं, नक्सली गतिविधियां एकदम से बढ़ जाती हैं। दो दिन पहले उड़ीसा के सुंदरगढ़ ज़िले में नक्सलियों ने भालूलता रेलवे स्टेशन उड़ा दिया। पूरे दिन संबलपुर रेलखंड पर ट्रेनों की आवाजाही ठप रही। इसके बाद बिहार में रतनगढ़ स्टेशन फूंक दिया और फिर मुंगेर के पास रेलवे ट्रैक उड़ा दिया। आतंकवाद हमारे देश में पिछले कुछ साल से बढ़ा है क्योंकि इससे पहले ये ज़हर जम्मू-कश्मीर तक ही सीमित था। लेकिन, नक्सलवाद बहुत पुराना मर्ज है, जो शायद लाइलाज़ भी होता जा रहा है। सरकार इसपर हर साल करोड़ों रुपये फूंकती जा रही है। हर साल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई जाती है और रणनीति तय की जाती है। लेकिन, नतीजा ये सामने आता है कि कभी महाराष्ट्र में एक साथ दर्जनों पुलिस वालों को मारकर उनकी आंखें तक नक्सली निकाल लेते हैं तो छत्तीसगढ़ के जंगलों में तलाशी अभियान में गए दस्ते का ही सफाया कर देते हैं। ज़रूरत है आतंक के नेटवर्क को तोड़ने की कोशिशों के साथ-साथ नक्सल नेटवर्क को तोड़ने और इस समस्या की जड़ तक पहुंचने की युद्धस्तर पर कोशिश करना...वर्ना एक ओर तो देश पाकिस्तानी आतंकियों की साज़िशों को नाकाम करने में उलझा रहेगा और दूसरी ओर देसी नक्सलियों की हिंसा का सामना करने में..
आपका
परम

Tuesday, February 24, 2009

इस मर्ज का इलाज क्या?

बीमारी का इलाज़ धीरे-धीरे करना चाहिए। खासकर अगर बीमारी ज्यादा फैल गई हो, वर्ना इलाज का उल्टा असर हो जाता है। ये बात उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीति में अपराधियों के बढ़ते दबदबे के संदर्भ में उस वक्त कही थी, जब वो भयमुक्त समाज के नारे के साथ सत्ता में आई थीं। लेकिन, कहते हैं ना कि चोर-चोर मौसेरे भाई सो बहन जी के इलाज का तरीका भी देखिए। मुख्तार अंसारी इस बार पवित्र धर्मनगरी वाराणसी से लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे और वो भी बहन जी की पार्टी यानी बीएसपी के टिकट पर और ईनाम मुख्तार के भाई अफज़ाल अंसारी को भी मिला है। अफज़ाल गाज़ीपुर से बीएसपी टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। अब ये तो मायावती ही बता सकती हैं कि विधायक कृष्णानंद हत्याकांड के आरोपी ने राजनीति में आतंक के अलावा ऐसा कौन सा काम कर दिया कि उन्हें वो टिकट से नवाज़ रही हैं या फिर उनका इलाज बिल्ली को दूध की रखवाली वाले नुस्खे पर तो नहीं चल रहा। वैसे चुनावी दंगल में दागी सिर्फ बीएसपी से नहीं किस्मत आजमाएंगे, ऐसी ही छवि वाले ब्रजभूषण शरण सिंह इस बार समाजवादी पार्टी टिकट पर गोंडा के बदले कैसरगंज से बुलेट के सहारे बैलेट बटोरते नज़र आएंगे। अदाकारी के जौहर दिखाने के साथ-साथ ए के 47 रखने के मामले में नाम कमा चुके संजय दत्त लखनऊ से साइकिल की सवारी कर ही रहे हैं तो जेल में बंद डॉन बबलू श्रीवास्तव भी वहीं से चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। ऐसे ही नेताओं से धन्य है हमारा लोकतंत्र...चलिए यूपी के बाद देख लेते हैं बिहार का हाल...मज़ाक में लोग कहते भी हैं, दोनों भले ही दो राज्य हैं..लेकिन, दोनों भाई जैसे ही हैं। तभी तो इन दोनों राज्यों में चुनाव के दौरान शांति बनाए रखना चुनाव आयोग के लिए उतनी ही बड़ी चुनौती मानी जाती है, जितना आतंक प्रभावित जम्मू-कश्मीर या नक्सल हिंसा से ग्रस्त झारखंड या उड़ीसा में चुनाव कराना। खैर..हाल ही में टीवी पर देखा कि रामविलास पासवान अपने साथ खड़े सूरजभान सिंह को बलिया से लोकजनशक्ति पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर रहे थे और सूरजभान लोकतंत्र की आवाज़ को संसद में बुलंद करने के लिए जनता से वोट देने की अपील कर रहे थे। सूरजभान भी हाल तक पटना के बेऊर जेल में हत्या के मामले में बंद थे और बिहार से बाहर के लोगों के लिए भले ही अपरिचित हों, लेकिन मोकामा से लेकर बलिया तक इनकी दबंगई काबिले-तारीफ है। इनके मुकाबले ही तो नीतीश कुमार ने छोटे सरकार यानी अनंत सिंह नाम के गुंडे को बड़ा नेता बनवाया है। और ऐन चुनाव से पहले तिहाड़ में बंद पड़े पप्पू यादव को भी जमानत मिल गई है। सब चुनाव मैदान में अपने विरोधी उम्मीदवारों को देख लेने की तैयारी में हैं। हाल ही में शाहनवाज़ हुसैन संसद में आरजेडी के तस्लीमुद्दीन को देख लेने की ललकार खुलेआम लगाते नज़र आए। बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट ने कुछ दिन पहले सभी दलों को एक चिट्ठी लिखी थी। मजमून ये था कि ये दल चुनावों में किसी दागी या आपराधिक छवि वाले नेता को टिकट नहीं देंगे वर्ना उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। कई संगठन भी ऐसे लोगों को चुनाव में उतारने के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे हैं। लेकिन, मानता कोई नहीं है क्योंकि हर कोई जानता है कि बैलेट और बुलेट का संबंध रोटी और सब्ज़ी का है, चावल और दाल का है। हां, बात राजनीति में स्वच्छता की सब करता है और जब बात दागियों की आती है तो दलील भी देता है कि जबतक सज़ा नहीं होती, तबतक कोई दागदार नहीं होता..सवाल ये है कि फिर ये लोग चुनाव जीत कैसे जाते हैं। हम लोग क्यों उन्हें वोट दे देते हैं। तो जवाब ये है कि आज भी अगर वोटिंग आठ बजे सुबह से शुरू होती है और लोग दो-चार घंटे बाद वोट देने मतदान केंद्र पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि उनका वोट तो डाला जा चुका है। जी हां, बड़े शहरों के वोटर भले ही लोकतंत्र की इस तेज़-तर्रार पद्धति से अनजान हों, लेकिन यूपी और बिहार के लोग इससे कतई अनजान नहीं। जिन मतदान केंद्रों पर वोटर पचास फीसदी की तादाद में पहुंचते हैं, वहां भी अस्सी-नब्बे फीसदी वोट पड़ते हैं। पोलिंग एजेंट अगर बराबरी की टक्कर वाले हों तो वोट भी बराबर में बांट लेते हैं और अगर खास पार्टी का एजेंट दमदार हो, रुतबेदार हो तो अपने उम्मीदवार के लिए वोट छापने में पूरा ज़ोर लगा देता है। बिहार में गुजरे जमाने का एक दबंग विधायक अपने इलाके के वोटरों को कहता था...दिन तुम्हारा, रात हमारा...(हमारी नहीं हमारा क्योंकि बात बिहार की है, भाषा पर ना जाएं)..यानी अगर दिन में हमें वोट नहीं दिया तो उस समय तो सुरक्षाकर्मी आपको बचा लेंगे, लेकिन रात में कौन बचाएगा ? अब जान का डर तो भई सबको है..तभी तो लोग एक रंगदार को पैसे देकर दूसरों से खुद को महफूज रखने को मजबूर हैं और इसी मजबूरी का फायदा उठा रही हैं ये पार्टियां...और जबतक हम मजबूर हैं तबतक ये सब चलता रहेगा..चलता रहेगा...
आपका
परम

Sunday, February 15, 2009

हंसिए मत...सोचिए

दो दिन पहले एक ख़बर काफी चर्चा में रही थी। ब्रिटेन में एक तेरह साल का बच्चा बाप बन गया था। चाय की दुकान पर जब किसी ने चर्चा छेड़ी तो एक मित्र ने जमकर ठहाका लगाया। पता नहीं क्यों, मैं ठहाका नहीं लगा सका क्योंकि दिमाग में ख्याल उस बच्चे का आया, जिसकी मां पंद्रह साल की और पिता तेरह साल का है। सोचा, अगर इनके परिवार ने साथ नहीं दिया तो क्या भविष्य होगा, उस बच्चे का ? अच्छा-ख़ासा कमाने वाला आदमी आज की तारीख में पूरी प्लानिंग के बाद शादी करता है और फिर कुछ जमा-पूंजी जुटाने के बाद बच्चे के बारे में सोचता है...और दो बच्चों के नाम से तो हवा ही निकल जाती है..ऐसे में ये क्या हो रहा है? फिक्र ब्रिटेन की सरकार को भी हो रही है। बाक़ायदा वहां की संसद में चिंता जताई गई, मंत्री को बयान देना पड़ा। लेकिन, फिक्र भारत में भी कम नहीं है। क्या हो शादी की उम्र...इस सवाल को लेकर दिल्ली में हाईकोर्ट की एक फुल बेंच परेशानी में है और केंद्र सरकार भी पसोपेश में है। मामला एक ऐसे जोड़े की शादी का है, जिसमें दोनों नाबालिग हैं। पंद्रह साल की उम्र में इन्होंने शादी कर ली। हाईकोर्ट की एकल पीठ ने लड़की को बच्चे माफ कीजिएगा ..पति के साथ रहने की इजाजत भी दे दी। लेकिन, घरवालों की याचिका पर दो सदस्यों की पीठ ने पहले फ़ैसले को पलट दिया। अब लड़की की उम्र सत्रह साल है और वो एक महीने बाद मां भी बनने वाली है। ऐसे में कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि शादी की उम्र क्या होनी चाहिए। सरकार की ओर से इस मामले में ये दलील दे दी गई कि आजकल तो 15 में बच्चे मैच्योर हो जाते हैं, लिहाजा इन्हें साथ रहने की इजाजत मिल जानी चाहिए। वैसे शादी की उम्र तो 18 और 21 है ही। कोर्ट नाराज़ है, सरकार से ठोस तर्क देने को कहा गया है। वैसे एक और मामला दिल्ली का ही आया था। एक नाबालिग जोड़े ने शादी कर ली थी और जब उन्हें बच्चा हुआ तो एक दूसरी महिला को तबतक पालने के लिए सौंप दिया था, जबतक वो बालिग नहीं हो जाते। जब बालिग हुए तो बच्चा मांगने गए, लेकिन पालने वाली मां ने इससे इनकार कर दिया। लंबा बवाल चला, लेकिन बच्चा जन्म देने वाली मां को ही मिला। तब भी ऐसे ही सवाल उठे थे। सवाल ये है कि अगर आज भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं तो हम किस बूते गुज़रे ज़माने की बालविवाह प्रथा को उलाहना दे सकते हैं। दरअसल, ज़िंदगी चलाने की जद्दोज़हद में हो रही वक्त की कमी से हम अपने बच्चों पर ध्यान ही नहीं दे पा रहे...नतीज़ा सामने है। उन्हें जो ठीक लगता है, वो करते हैं क्योंकि सही सुझाव देने वाला उन्हें मिलता ही नहीं। ज़ाहिर सी बात है...कम उम्र में सेक्स को लेकर आकर्षण कुदरती है, लेकिन सेक्स को लेकर सही सोच तो कुदरती नहीं, उसे तो समझना होगा...समझाना होगा। वर्ना आज हम दूसरों के किस्से सुनकर मज़ा लेते हैं, कल घर में यही किस्सा देखकर रोएंगे।
आपका
परम

Saturday, February 14, 2009

प्यार...इकरार...तकरार

जब उन्होंने देखा 'उसे' पहली बार,
सोचा, दिन में कैसे हुआ चांद का दीदार..
हो गया था उन्हें, पहली नज़र में प्यार,
जुटाई हिम्मत और कर दिया इज़हार..

वो भी थी नए अहसास से बेक़रार,
थोड़ी झिझक, थोड़ा शर्म और कर दिया इकरार..
रिश्ते में बदला प्यार तो ज़िंदगी ने पकड़ी रफ्तार,
घर में गूंजी किलकारी तो और बढ़ गया प्यार..

लेकिन, धीरे-धीरे, कब, कैसे..छोटी बातें बन गईं बड़ी दीवार,
ख्याल तब आया, जब बढ़ती ही गई तकरार..
पर, ये फलसफा कभी न भूलना यार,
कि उनमें ही होती है तकरार, जो करते हैं प्यार...

बस थोड़ा सा रखो सब्र और करो थोड़ा इंतज़ार,
ये साथ है हमेशा का..सो बरसेगी प्यार की फुहार..

सभी ब्लॉगर्स को वैलेंटाइन्स डे की बधाई...जिन्हें इस बार मायूसी मिली, उनके लिए better luck next time...आपका
परम

Friday, February 13, 2009

जुबां संभाल के भई..

पाकिस्तान ने मुंबई हमले पर आखिरकार पहला जवाब दे दिया...सरकार को लगा भागते भूत की लंगोट भली..सो तारीफ भी की। हालांकि पाकिस्तान ने अपने जवाब के साथ भारत पर तीस सवाल भी दागे और ये भी कहा कि उसके यहां तो साज़िश का कुछ ही हिस्सा रचा गया बाक़ी तो जो हुआ, वो भारत जाने मसलन आतंकियों को सिम भारत में कैसे मिले? मुंबई में उसकी मदद किसने की वगैरह-वगैरह...यूपीए सरकार पर निशाना साधते-साधते नरेंद्र मोदी भी दो दिन पहले पाकिस्तानी अल्फाज बोल गए थे और इस बार तो मुंबई पुलिस कमिश्नर की ही जुबान फिसल गई। उन्होंने देखा कि रहमान मलिक के बयान के बाद प्रणब, चिदंबरम, रविशंकर, आडवाणी सब ही बोल रहे हैं तो वो भी बोल पड़े। कह डाला कि हां स्थानीय लोगों ने पाकिस्तानी आतंकियों को हमले में मदद दी और सोलह की तो तलाश भी हो रही है। अरे हसन गफूर साहब..थोड़ा संयम रख लेते...टीवी पर आने का इतना ही शौक था तो हमले वाले दिन कुछ कर दिखाते...क्यों देश की कूटनीतिक कोशिशों को शहीद करने पर तुले हैं। खैर..कुछ ही देर बाद उनका अगला बयान आया कि नहीं, किसी ने आतंकियों को स्थानीय स्तर पर मदद नहीं दी..लेकिन, तरकश से निकले तीर की तरह जुबान से निकली बात भी कहीं वापस आती है। पहले अंतुले फिर मोदी और अब गफूर...अगर बोलने का इतना ही शौक है तो पहले अपने पद की गरिमा और बयान की अहमियत तो समझ लेनी चाहिए वर्ना तो अपनी फजीहत तो करा ही रहे हैं, देश की कूटनीति को भी जाने-अनजाने पाकिस्तानी भाषा बोलकर बैकट्रैक पर डाल रहे हैं। वैसे ही ज्यादा और बेतुका बोलने की बीमारी काफी खतरनाक है। जिसे देखिए बोले ही जा रहा है...मुतालिक लड़के-लड़कियों को साथ देखकर शादी कराने या राखी बंधवाने की भाषा बोल रहे हैं तो रेणुका पब भरो आंदोलन का नारा बुलंद कर रही हैं। एक एनजीओ गुलाबी चड्ढी मुतालिक को भेजने का नारा बुलंद कर रहा है तो अमर सिंह को समझ ही नहीं आ रहा कि सीबीआई की जांच को लेकर कांग्रेस को बोलना है या जांच एजेंसी को...लेकिन, हमें-आपको बोलना चाहिए, ऐसे बोलों के खिलाफ...और वो भी खुलकर....वैसे लालू जी के अंतरिम रेल बजट पर भी सब बोल रहे हैं। बिहार में आरजेडी जय जयकार कर रही है तो विपक्ष इसे वोट बैंक का बजट बता रहा है। लेकिन, जनता तो खुश है क्योंकि मंदी में किराए कुछ तो घटे ही, लालू ने बैलेट के लिए बुलेट ट्रेन चलाने का सपना भी दिखा दिया...
आपका
परम

Monday, February 9, 2009

बड़े काम का कार्ड

कार्ड बड़े काम की चीज है, ताश खेलते वक्त काम का पत्ता हाथ लग जाए तो खिलाड़ी का चेहरा जीत की खुशी से चमक उठता है। लेकिन, प्लेइंग कार्ड के अलावा एक और कार्ड को भी हम पहचानने लगे हैं। अलग-अलग चैनलों पर सजी-संवरी युवतियों के हाथ में अक्सर दिखने वाले ये कार्ड तो इतने दमदार होते हैं कि मैच से पहले ही जीतने वाली टीम का नाम बता देते हैं..चुनाव से पहले ही किसकी सरकार बनेगी ये भी बता देते हैं। इस कार्ड को टैरो कार्ड कहा जाता है और इसे बताने वाले हमारा-आपका भविष्य बताकर अपना भविष्य बना रहे हैं। लेकिन, एक कार्ड ऐसा भी है, जो सियासी दलों और नेताओं के इस्तेमाल में आता है। इसे कहते हैं सेक्यूलर कार्ड...सबसे पहले इसे कांग्रेस ने लपका..आज़ादी की लड़ाई के दौरान ये कार्ड जिन्ना साहब को पसंद नहीं आया तो उन्होंने पाला बदल लिया, कार्ड कांग्रेस के ही हाथ रहा। बदलते वक्त के साथ इस कार्ड की कई जेरॉक्स कॉपी करा ली गईं। तबसे ये कार्ड हमारे देश में सियासी दोस्त और दुश्मन तय करते हैं। लेफ्ट के पास भी इसकी एक कॉपी है, सो पिछली बार कांग्रेस के कार्ड से इसका मिलान हुआ और केंद्र में सरकार बन गई। साढ़े चार साल की सत्ता के बाद जब लेफ्ट का मोहभंग हुआ तब भी इसी कार्ड की दूसरी कॉपी ने सरकार बचाई। याद कीजिए..विश्वासमत में कैसे मुलायम सिंह की पार्टी कांग्रेस के पाले में अचानक से टपक गई थी। इससे पहले जब एनडीए की सरकार बनी थी तो बीजेपी के कई साथी बीजेपी के साथ हो लिए थे, वो इसलिए कि बीजेपी बिना इस कार्ड के भी दमदार दिख रही थी। लेकिन, इस कार्ड की अहमियत इसी से समझी जा सकती है कि उन्होंने अपना कार्ड बीजेपी को नहीं दिया और ना ही इसकी कॉपी ही करने की इजाजत दी। कार्डधारक दूसरी पार्टियों ने जब ये पूछा कि बीजेपी के पास तो ये कार्ड था ही नहीं तो हाथ मिलाने का मतलब ये है कि उसके साथी दलों के कार्ड पर भी कालिख है। ऐसे में समाधान ये निकाला गया कि जो प्रधानमंत्री बनेगा यानी वाजपेयी, वो भले ही बिना इस कार्ड वाली पार्टी में है, लेकिन कार्ड पाने की पूरी योग्यता उसमें है। लिहाजा वाजपेयी प्रधानमंत्री भी बन गए। अब आडवाणी जी के मन में मलाल उठा सो वो सरहद पार जाकर जिन्ना साहब की मज़ार पर मत्था टेक कर इस कार्ड की दावेदारी ठोक दी। बदकिस्मती से पासा उलटा पड़ा.. कार्ड तो फिर भी नहीं मिला, फजीहत ऊपर से हो गई। हाल ही में जब ये कार्ड लेकर मुलायम सिंह कल्याण से मिले तो कांग्रेस को जुकाम हो गया। सीधा सवाल दागा..आपके पास तो कार्ड है, कल्याण के पास नहीं और ना ही हम कल्याण को ये कार्ड हासिल करने देंगे। अब एक बार फिर चुनाव आ गए हैं। बीजेपी फिर राम नाम के सहारे अपनी नैया चुनावी बैतरणी में उतारने का ऐलान कर चुकी है। राजनाथ से लेकर आडवाणी तक मंदिर-मंदिर, राम-राम जप रहे हैं। साथी दल आगाह कर रहे हैं, अपना तो कार्ड नहीं है, हमारा क्यों छिनवाने पर तुले हो...और सोनिया जी तो सीधा कह ही रही हैं कि राम के नाम पर राजनीति करने वाले आतंकवाद का सामना नहीं कर सकते...देश नहीं चला सकते। जाहिर है, अगले चुनाव और अगली सरकार में फिर इसी कार्ड की अहम भूमिका होने जा रही है। और चलते-चलते आपको बता दें कि सात समंदर पार भी चलता है ये कार्ड ब्लिकुल वीज़ा कार्ड की तरह...याद कीजिए...ओबाम ने शपथ लेते समय कैसे कहा था...ईसाई, मुस्लिम, यहूदी और हिंदू सभी अमेरिका में समान हैं...ये अलग बात है कि शपथ उन्होंने फिर भी बाइबिल हाथ में लेकर ली थी...खैर, उनका मसला..वो जानें...हमें और आपको तो ये तय करना है कि वोट पर इस कार्ड का क्या असर होगा..वही सेक्यूलर कार्ड...
आपका
परम

Friday, February 6, 2009

..बदलेंगे हम?

क्या मुस्लिम लड़कियों को लड़कों के साथ पढ़ने का अधिकार नहीं है? आपको सवाल अटपटा लग रहा होगा, लेकिन आपको ये ख़बर और भी अटपटी लगी होगी कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड ने इसपर पाबंदी लगा दी है। वजह क्या बताई गई है, ज़रा ये भी सुन लीजिए...'इस्लाम में पर्दा काफी अहम है और सह-शिक्षा यानी को-एजुकेशन से बेपर्दगी को बढ़ावा मिलता है, जो शरीयत के खिलाफ़ है।' चलिए रहम ये किया गया है कि तहतानिया यानी पहले से लेकर पांचवें क्लास और फौकानिया यानि छठे से लेकर आठवें क्लास तक की पढ़ाई साथ-साथ करने को बंदिशों से मुक्त रखा गया है वर्ना ना जाने कितनी बच्चियां अपना नाम तक लिखना नहीं सीख पातीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि मदरसों में अभी भी बड़ी तादाद में मुस्लिम बच्चियां तालीम हासिल करती हैं क्योंकि एक तो इनमें पढ़ाई का खर्च कम आता है और दूसरे कि रूढ़िवादी ख्यालात के लोगों को मदरसों पर यकीन भी ज़्यादा होता है। और उत्तर प्रदेश में तो मुस्लिम आबादी भी ज़्यादा है तभी तो यहां करीब उन्नीस सौ मदरसे चलते हैं। इनमें कुल सात लाख बच्चे तालीम हासिल करते हैं। आवाज़ मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ओर से भी इस पाबंदी के खिलाफ उठ रही है, बिल्कुल उसी तरह जैसे तरह-तरह के फतवों को लेकर उठती रही है। लेकिन, सवाल ये भी उठता है कि क्या कभी सोच नहीं बदलेगी? आखिर कबतक ऐसा चलता रहेगा? क्या अपने पैरों पर खड़े होने का हक़ इन मासूम लड़कियों को नहीं है? सोचने वाली बात ये है कि अगर लड़कों के साथ पढ़ने से बेपर्दगी को बढावा मिलने का डर कुछ कठमुल्लाओं को सता रहा है तो उनके पढ़-लिखकर नौकरी करने या व्यवसाय करने पर वो क्या ख़ाक तैयार होंगे। हर बात में मजहब को शामिल करना किस हद तक उचित है? ज़रा सोचिए
आपका
परम

Monday, February 2, 2009

आसमां पर उड़ने वाले...

एक मशहूर गाना है...आसमां पर उड़ने वाले धरती में मिल जाएंगे। कितने सटीक शब्द हैं इस गाने के...काश कि ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों को इतनी हिंदी आती कि वो इसका अर्थ समझ पाते (वैसे थोड़ी-बहुत आती भी है तभी तो हरभजन की गाली को समझकर बवाल खड़ा कर दिया था) । कौन भुला सकता है इस टीम की बदतमीजियों को...जब रिकी पॉंटिंग ने बुजुर्ग नेता, केंद्रीय मंत्री और दुनिया के सबसे अमीर और रसूखदार क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष को महज ग्रुप फोटो खिंचाने के लिए मंच से धकिया दिया था। कौन भुला सकता है जब इस टीम के खिलाड़ी दूसरी टीमों के खिलाड़ियों को मैदान पर उकसा-उकसा कर तनाव में लाते थे और फिर उसके आउट होने पर जश्न मनाते थे। लेकिन, अब देखिए क्या हो रहा है हाल? पहले भारत आए तो पिट कर गए और अब अपने ही घर में एक के बाद एक हार मिलती जा रही है। न्यूज़ीलैंड ने रविवार को जिस तरह से पर्थ वन डे में कंगारुओं को पस्त किया, उसके बाद तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम है। कप्तान पोंटिंग भी दो मैच में रेस्ट करने पर मजबूर हैं। वैसे बादशाहत तो पहले ही छिन गई थी, जब दक्षिण अफ्रीका ने पांच वन डे मैचों की सीरीज़ में चार-एक से हराकर मुकाबले को एकतरफा बना दिया था। सीरीज़ तो गई ही, नंबर वन की रैंकिंग की जिस गुमान में ये चूर थे, वो भी चकनाचूर हो गई। वापस लौटने का मौक़ा न्यूज़ीलैंड से सीरीज़ जीतने की है, लेकिन आगाज़ ही हार के साथ हुआ है। वैसे इसमें कोई शक नहीं कि ऑस्ट्रेलियाई टीम में पासा पलटने का पूरा माद्दा है और उसके कई खिलाड़ी अपने बूते मैच का रुख पलट सकते हैं। लेकिन, इन हारों से उसे सबक ज़रूर लेनी चाहिए क्योंकि यही टीम पहले हार को पचा नहीं पाती थी। बल्ले और गेंद की जगह जुबानी जंग छेड़ दिया करती थी। और यही वजह है कि उसकी हर हार से क्रिकेट प्रेमियों के दिल को तसल्ली मिलती है। हां, एक चैंपियन की हार दुखद होती है, लेकिन ऑस्ट्रेलियाई हार दुखद नहीं लगती क्योंकि उन्होंने अपने व्यवहार से इस खेल की भावना को ही ठेस पहुंचाई है। वैसे ऑस्ट्रेलिया से इससे भी बड़ी खुशी की ख़बर ये आई कि सानिया मिर्जा और महेश भूपति की जोड़ी ने मिक्सड डबल्स का खिताब जीत लिया। सानिया को पहले ग्रैंड स्लैम पर बधाई..और बधाई यूकी भांबरी को भी, जिन्होंने पहली बार ऑस्ट्रेलियाई ओपन सिंगल्स का जूनियर वर्ग का खिताब जीता। तो दुनिया तैयार रहे...टेनिस में भी भारत टक्कर देने की स्थिति में आ गया है। जय हो...
आपका
परम

Saturday, January 31, 2009

तोहफे समेटिए,काम आएंगे

भला हो चुनाव का, जो ऐन मंदी के मौके पर आ रहे हैं, वर्ना ना जाने हमारा-आपका क्या हाल होने वाला था। जी हां..सरकार भले ही ये दावा कर रही है कि विकास दर साढ़े सात फीसदी होने का अनुमान है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में विकास दर महज 5.1 फीसदी आंक कर खतरे की घंटी बजा दी है। अब अंदरखाने की तो ख़बर यही है कि असर जो पड़ना है सो चुनावों के बाद ही पड़ना है, क्योंकि तबतक सरकार इसे संभालने के लिए चुनावी तौर पर मजबूर है। अब देखिए ना...गेहूं का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया गया यानी किसान अपने गेहूं को पहले से ज़्यादा दाम पर बेच सकेंगे। रसोई गैस की कीमत तो पच्चीस रुपये प्रति सिलेंडर घटा ही दी गई है, भले ही इसपर दी जा रही सब्सिडी का बोझ सरकार पर और बढ़ गया है। और लगे हाथों पेट्रोल-डीज़ल के दाम भी घट गए हैं। यही नहीं हवाई जहाजों के टिकट भी सस्ते हो गए हैं..खासकर इकॉनॉमी क्लास के...इससे पहले, होम लोन के रेट गिर ही चुके हैं और सिमेंट , सरिया के दामों में भी कटौती की जा चुकी है। सुनते हैं एक और राहत पैकेज आने वाला है...अब छोड़िए ये बहस कि ये सब अभी ही क्यों हो रहा है...इसमें उलझने दीजिए नेताओं को, पार्टियों को..आप तो बस ये सोचिए कि एक बार चुनाव हो गए तो फिर महंगाई पूरे शबाब पर होगी इसलिए इन तोहफों को सहेजकर रखिए..जितना बच जाए, बचाते चलिए..बूंद-बूंद से घड़ा भरने का वक्त आने ही वाला है क्योंकि हालात बता रहे हैं कि मंदी जल्दी जाने वाली नहीं है। और मंदी की मार पड़नी शुरू हो चुकी है ये तो हम सब जानते ही हैं। अब सरकारी बाबुओं के तो चुनावी मौसम की वजह से मंदी में भी बल्ले-बल्ले हैं, लेकिन प्राइवेट कंपनियों में काम करने वालों के होश उड़े हुए हैं। हर दिन ये सोचते हुए दफ्तर आते हैं कि कहीं जाते ही इनहाउस मेमो न नज़र आ जाए और हर दिन हांफते-कांपते घर जाते हैं कि पता नहीं अगले दिन लौटने पर नौकरी रहेगी या नहीं...मज़ाक नहीं, सच में हालत यही है। कॉस्ट कटिंग की मार वाकई जबर्दस्त पड़ रही है। सबसे मुश्किल तो ये है कि जहां पहले से काम कर रहे हों, अगर वहीं से हटा दिए गए तो नई जगह में भला इस मौसम में रखेगा कौन? इसलिए अब वो चर्चा जो हर दफ्तर में इस वक्त यानी जनवरी खत्म होने के वक्त होती थी, वो भी बंद है। वही चर्चा..प्रोमोशन की, इन्क्रीमेंट की...अब तो बस बात यही हो रही है कि नौकरी तो बच जाएगी ना यार? खुदा ना करे..कहीं वाकई वो वक्त आ गया तो क्या होगा..और दिलासा कौन किसको देगा, जब सबकी हालत एक सी होगी..तभी तो कह रहा हूं कि भाई, कुछ बचाते चलो...सरकारी तोहफे सहेजते-समेटते चलो..बुरे वक्त में काम आएंगे...वैसे कुछ आइडिया हो तो मुझे भी बताइएगा ज़रूर क्योंकि सुनते हैं एक आइडिया ज़िंदगी बदल देती है...
आपका
परम

Friday, January 30, 2009

अब तो कह दो..

क्य़ा बात थी दिल में तेरे,
जो तुम ना कह सके..
क्या दर्द था दिल में तेरे,
जो तुम ना सह सके..

हालात की दरिया में,
बहता है ये जहान,
वो क्या हुआ कि संग इसके,
तुम ना बह सके..

मझधार में फंसे हो तुम,
हमको ये थी ख़बर..
तभी तो तेरे साथ था,
पर तुम थे बेख़बर..

मत भूल कि ये रात भी,
अब जाएगी गुज़र..
अब तो कह दो वो बात,
जो अब तक ना कह सके..

आपका
परम

Tuesday, January 27, 2009

हवा का रुख मोड़ोगे ?

नवाब पटौदी-शर्मिला टैगोर, सैफ अली ख़ान-अमृता सिंह, मोहम्मद अज़हरुद्दीन-संगीता बिजलानी, अरबाज ख़ान-मलायका अरोड़ा, सुहेल ख़ान-सीमा, शाहरुख ख़ान-गौरी, उमर अब्दुल्ला- पायल...इन तमाम चर्चित जोड़ियों में पति मुस्लिम और पत्नी हिंदू हैं। अब ज़रा इसके उलट देखिए...सुनील दत्त-नरगिस, संजय दत्त-मान्यता, किशोर कुमार-मधुबाला, ऋतिक रोशन-सुजैन..इन जानी-पहचानी जोड़ियों का ज़िक्र इसलिए क्योंकि समाज के कुछ ठेकेदारों को इस बात पर सख्त एतराज है कि हिंदू लड़कियां, दूसरे मजहब के लड़कों से मिलें..उनके साथ घूमें-फिरे.. मैंगलोर के पब में श्रीराम सेना के गुंडों ने जो कुछ किया, उसके पीछे इस संगठन की यही सोच थी। अब इन्हें कौन समझाए कि हवा का रुख कभी मोड़ा नहीं जा सकता। वेलेंटाइन्स डे का हर साल विरोध करने वाली और इस मौके पर तोड़फोड़ करने वाली शिवसेना भले ही अब थक गई हो, लेकिन कोई माना क्या? अब ये अच्छा है, बुरा है इस पर बहस भले ही चले.. हर किसी की अपनी सोच है, हर कोई किसी बात का समर्थन कर सकता है तो किसी का विरोध..ये लोकतंत्र है और हर किसी को इसका अधिकार भी है। लेकिन, सवाल है अपनी बात मनवाने के लिए अख्तियार किए गए तरीके का... भगवान श्रीराम के नाम पर सेना बनाकर गुंडागर्दी करके तो ये लोग भगवान के नाम को भी बदनाम कर रहे हैं, जिसे कोई भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। आपको कोर्ट की एक अहम टिप्पणी के बारे में याद कराता चलूं...किसी आपराधिक मामले में एक ऐसे शख्स को दोषी करार दिया गया, जिसका नाम एक महापुरुष के नाम पर था। इसपर कोर्ट ने कहा कि कम-से-कम इस तरह के कृत्य करने से पहले वो नाम का ख्याल तो रख लेता। भगवान राम ने कभी किसी महिला पर हाथ नहीं उठाया और ना ही उनकी सोच इतनी संकीर्ण थी कि किसी के दूसरे के साथ घूमने-फिरने पर डंडे फटकारते फिरें। क्या ये भी याद दिलाने की ज़रूरत है कि रावण को मारकर अगवा की गईं सीता जी को लंका से अयोध्या लाने वाले भी वही थे। और इस संगठन की बेशर्मी तो देखिए कि पहले तो लड़कियों को बालों से घसीटकर पीटी, थप्पड़ चलाए और अगले दिन ये भी कहा कि ये सब छोटी-मोटी घटना है। जनाब, आपकी बहनों के साथ ऐसा हुआ होता तब क्या कहते आप? और आप क्यों इतने फिक्रमंद हो रहे हो, उनका ख्याल रखने के लिए उनके घरवाले हैं ना ? अगर वो कोई ऐसी हरकत कर भी रहे हों, जो सार्वजनिक स्थल पर नहीं करनी चाहिए तो पुलिस है ना..सौ नंबर घुमाइए, शिकायत कीजिए.. आपको कानून हाथ में लेने की इजाजत किसने दी ? इन संगठनों के कर्ता-धर्ता अपने फायदे के लिए युवाओं के जेहन में ज़हर घोल रहे हैं, जिनसे इन्हें बचाना होगा। वर्ना हिंदुस्तान में तालिबानी संस्कृति पनपते देर नहीं लगेगी। गुंडातंत्र पर लगाम लगाने की ज़रूरत है। और पंजाब के तरनतारन के लोगों को कौन समझाए, जिन्होंने एक पति-पत्नी को इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी की थी। अरे भाई... किस संस्कृति के नाम पर ये सबकुछ कर रहे हो..क्या देश में पहले कभी लड़कियों ने अपनी मर्जी से शादी नहीं की। हमारे देश में तो वैसे भी स्वयंवर की परंपरा रही है और आदिवासी समाज में तो आज भी लड़कियां अपनी पसंद के वर को जीवनसाथी चुनती हैं। तो सोच बदलिए और जो भटके हुए हैं, उनमें भी नई सोच भरिए। वक्त बदल रहा है, जमाना बदल रहा है, सोच को भी बदलने की ज़रूरत है क्योंकि तरक्की की राह में रोड़ा बनी तालिबानी सोच चार कदम आगे बढ़ रहे देश की टांग दो कदम पीछे खींच सकती है।
आपका
परम

युवा हुआ देश

साठ साल के युवा गणतंत्र को पूरे देश ने सलाम किया...युवा इसलिए कि अभी देश के नागरिकों की औसत उम्र एक भरपूर युवा की उम्र है यानी 25 से 26 साल के बीच.... और आने वाले चार दशक गुजरते-गुजरते देश और जवान हो जाएगा। इसे हम भले ही अभी तवज्जो नहीं दे रहे, लेकिन दुनिया को इसका पूरा अहसास है। तभी तो दुनिया भारत में भविष्य का नेता होने की संभावना तलाश रही है। आपको याद दिला दें कि यही वो औसत उम्र है, जिसके रहते अमेरिका ने बिल क्लिंटन के शासन में सबसे ज़्यादा आर्थिक तरक्की की थी। इस देश की राजनीति में भले ही बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं की तूती बोल रही है मसलन मौजूदा प्रधानमंत्री 76 साल के हैं और अगर पीएम इन वेटिंग यानी आडवाणी जी की हसरत पूरी हुई तो वो तबतक 82 साल के होंगे। लेकिन, इन नेताओं के विकास के दावों का आधार युवा भारत ही है। वो भारत जो महामंदी के बीच भी चट्टान की तरह खड़ा है। यहां अगर कोई बड़ी कंपनी, मसलन सत्यम डूब भी रही है तो मंदी के चलते नहीं, बल्कि घोटाले की वजह से...हां, कमजोर बुनियाद वाली कंपनियां भले ही दम तोड़ रही हैं। युवाओं में समाज को बदलने का माद्दा है, युवाओं में सौ फीसदी श्रमदान की क्षमता है। सो इस गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर दिखा जवानों का शौर्य देखकर निश्चिंत हो जाएं..हमारे कदम कभी थमने वाले नहीं।
आपका
परम

Sunday, January 25, 2009

..एक बार मुस्कुरा दो

चाहो तो मेरी दोस्ती का इम्तिहान ले लो,
फिर भी ना माने दिल, तो मेरी जान ले लो..
रहते हो आप ही मेरे ख्यालों-ख्वाबों में,
ना हो अगर यकीन तो, ईमान ले लो...

गर आप हो लो साथ तो खुद को भुला दूं मैं,
मेरी जो भी पहचान है, पहचान ले लो..
इक बार मुस्कुरा दो तो फिर बात बन जाए,
बदले में मुझसे सारा जहान ले लो...
आपका
परम

Saturday, January 24, 2009

..बदलाव की बयार

बदलाव वक्त का तकाजा होता है और बदलाव वक्त के साथ ही आता भी है, लेकिन ये छोटा सा शब्द अमल में लाना कभी भी आसान नहीं होता। ज़रा सोचिए कि कोई शराबी हर दिन अपने परिवार से, दुनिया से शराब पीने के लिए तमाम लानत सुनता है, हर दिन नशा उतरने पर अपनी आदत को लेकर पछताता है और हर दिन फिर भी शराब पी लेता है। और शराब ही क्यों सिगरेट, पान, गुटखा, तंबाकू जैसी लतों के शिकार भी चाह कर खुद को एकदम से नहीं बदल पाते। आदत बदलनी आसान नहीं..अगर आप पीयर्स साबुन लगाते हैं और किसी दिन ये नहीं मिल पाता तो लक्स देखकर ही आपकी भौंहें चढ़ जाती है या फिर सुबह-सुबह आपके घर अखबार वाला किसी दिन टाइम्स की जगह हिंदुस्तान फेंक जाए तो आप पेपर पढ़ना ही नहीं चाहते। या फिर लीफ की चाय की लत हो और किसी दूसरी पत्ती वाली चाय मिल जाए तो नहीं पीते..मुश्किल है ना बदलाव..आप देर से उठने के आदी हों और किसी दिन किसी ज़रूरी काम से सुबह उठना हो तो रात भर नींद ही नहीं आती..ऐसे में बड़े बदलावों के बारे में सोचिए कि कैसे वो मुमकिन हो पाए? तभी तो क्रांति के बारे में कहा जाता है the process of revolution is evolutionary, but the effects are revolutionary. रूसी क्रांति हो या फिर फ्रांसीसी या फिर चीनी या भारत का स्वतंत्रता संग्राम.. और क्रांति सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में नहीं..बाल विवाह रोकने, विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए भी सोच को बदलने की क्रांति हुई। आज अरब से ऊपर की आबादी अपनी धरती की पैदावार पर पल रही है तो इसके पीछे भी हरित क्रांति है। बदलाव की बात इसलिए जेहन में अचानक आई क्योंकि दुनिया जिसे अपना मुखिया मानती है और जो खुद को दुनिया का मुखिया कहता है, उसके नए मुखिया ने अपने चुनाव को बदलाव का चुनाव करार दिया है। जी हां, बात अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की...
अमेरिका को बदलने के नारे और सपने के साथ ओबामा राष्ट्रपति बन चुके हैं। शपथ के बाद उनके पहले ही भाषण में मंदी की चुनौती मुख्य मुद्दा रहा। उन्होंने फिजूसखर्ची रोकने पर ख़ास ज़ोर दिया और पद संभालते ही पहला काम ये किया कि ह्वाइट हाउस के कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर डाली। लेकिन, शपथ के तामझाम में अमेरिका ने करोड़ों फूंक डाले। काश अमेरिका और दुनिया को बदलने के नारे को फिजूलखर्ची की परंपरा को बदलने के तौर पर ओबामा मिसाल पेश करते। ख़ैर..बदलाव तो फिर भी दिखा, जब ओबामा ने आतंकवाद पर पाकिस्तान को सख्त नसीहत दे डाली। अबतक दुनिया को ये समझ में नहीं आ रहा था कि जिस मुल्क में आतंकवाद और आतंकवादियों को पनाह मिलती रही है, जो मुल्क आतंक का कारखाना है, वही आतंकवाद के खिलाफ दुनिया की जंग में अमेरिका का सबसे बड़ा साथी क्यों बना हुआ है। लेकिन, बदलाव पाकिस्तान की ओर से भी दिखा..ऐसा कि ओबामा के भी होश फाख्ते होते दिख रहे हैं। पाकिस्तान ने चीन को अपना नेता होने का खुलेआम ऐलान कर नया खेल कर दिया है और बाक़ी किसी को पसंद आए या नहीं, कम से कम भारत को तो ये खेल कतई नहीं पसंद आ रहा। सो संतुलन की खातिर हमने अभी भी अमेरिका की पूंछ पकड़ रखी है। और बदल लालूजी भी गए हैं। जापान गए थे तो खैनी थूकने में काफी परेशानी हुई..अब लौटकर सबको खैनी छोड़ने की समझाइश पेश कर रहे हैं। दूसरे के घर के सामने कचड़ा फेंकने को नॉनसेंस बता रहे हैं। और सबसे ज़्यादा तो बदलाव हम हिंदुस्तानियों में है। अब देखिए ना..मंदी में बाहर वाले बेचारे खर्च में कटौती करने पर मजबूर हैं, लेकिन हमें तो बचपन से ही यही घुट्टी मिली है कि जितनी चादर हो, उतनी ही पांव पसारे..और हम करते भी यही है। जेब भारी हो तो छककर दारू भी पी लेते हैं और अगले दिन फाका भी हो तो गम नहीं करते। रात तो रात, दिन में भी सड़क किनारे दारु पीकर लेटे लोगों का नज़ारा यहां आम है। तो वक्त के मुताबिक हमसे ज्यादा भला कौन बदल सकता है। और सच तो ये भी है कि हमारी नज़र बदलते भी देर नहीं लगती। जिसके साथ बड़े होते हैं, वही भाई बदल जाता है या यूं कहें कि उसके बारे में हमारा नजरिया बदल जाता है। जो दोस्त हर वक्त साथ होता है, स्टेटस बदलने के साथ ही उसका साथ बदल जाता है। ठीक ही है...बदलाव की बयार तो बहती ही है, अब कोई चाहे तो उसके साथ बहे या नहीं...
आपका
परम

Sunday, January 18, 2009

ये कबतक अंडा देगा?

ना निगलते बने, ना उगलते बने..कुछ यही हो रहा है कसाब को कस्टडी में रखने वाली मुंबई पुलिस के साथ। कसाब के लिए जो खाना आता है, वो उससे पहले किसी पुलिसवाले को खाकर देखना पड़ता है कि इसमें कहीं ज़हर तो नहीं.. उसके लिए जेल में अदालत लगाई जा रही है ताकि बाहर ले जाते या आते वक्त कहीं कोई हमला न हो जाए...लेकिन, खतरा जेल के बाहर तक ही सीमित नहीं है। जेल के अंदर भी कसाब को कोई ठिकाने लगा सकता है...मुमकिन है दाउद के गुर्गे, जो पहले ही से जेल में बंद हैं, मुमकिन है कसाब की कहानी सुनवाई और मुकदमेबाज़ी से पहले ही ख़त्म कर दें। कसाब इस वक्त बेहद कीमती है, क्योंकि उसकी सलामती पर काफी हद तक टिका है मुंबई हमलों के गुनहगारों के चेहरे से मुखौटा हटाने का दारोमदार। कसाब से भारतीय एजेंसियों के साथ-साथ अमेरिकी एजेंसी भी पूछताछ कर रही है क्योंकि इस जीते-जागते सबूत को नकारना पाकिस्तान के लिए मुमकिन नहीं है। ज़ाहिर है ऐसे में मुंबई हमले के इस इकलौते ज़िंदा सबूत को सहेजकर रखना ही होगा। तभी तो इसे आर्थर रोड जेल की अंडा सेल में रखा जाना है। लेकिन, सबकुछ जल्दी निपटाना होगा क्योंकि हमने कहीं पढ़ा है कि इतिहास खुद को दोहराता है और कहीं वो बदनुमा इतिहास न दोहरा जाए, जिसमें किसी मंत्री की बेटी या फिर यात्री समेत बंधक बने विमान की फिरौती के बदले हम खुद कसाब को आतंकियों के ही हवाले कर आएं। ठीक है और लाजिमी भी है कि फिलहाल वक्त का तकाजा है, कानूनों की बाध्यता है और कूटनीतिक ज़रूरत भी है कि कसाब को बचाकर रखा जाए...उस आतंकी को वीवीआईपी मेहमान की तरह सुरक्षा दी जाए, जिसने साथियों के साथ मिलकर 183 लोगों को मार डाला। लेकिन, ये ध्यान भी रखना होगा कि कहीं कसाब अनंतकाल तक अंडा सेल में अंडा ही न देता रह जाए। संसद हमले के दोषी अफजल का मामला तो आपको याद है ना...
आपका
परम

Saturday, January 17, 2009

घर के घोटालेबाज़

एक कहावत बहुत प्रचलित है...घर बसा नहीं, लेकिन लुटेरे पहुंच गए। अचानक इसका ख्याल आया, जब दिल्ली विकास प्राधिकरण यानी डीडीए के फ्लैट्स के ड्रॉ में घोटाले की ख़बर देख-पढ़ रहा था। वो तो भला हो मीडिया का, जो हो-हल्ला मचा तो सरकार और कोर्ट को भी दाल में कुछ काला नज़र आया और जब जांच आगे बढ़ी तो पूरी दाल ही काली नज़र आ रही है। जो सामने दिख रहा है, उससे लग रहा है कि अफसर, डीलर सब घोटाले में शामिल हैं। पहले एससी कैटेगरी वाले फ्लैट्स में घपले का शक था, अब जनरल कैटेगरी भी लपेटे में है। हालात ये है कि पूरा ड्रॉ भी रद्द हो सकता है। जिन्हें फ्लैट नहीं मिला वो पहले किस्मत को कोस रहे थे, अब डीडीए को दोष दे रहे हैं। जिन्हें किस्मतवाला होने के सर्टिफिकेट के तौर पर फ्लैट मिला वो भी किस्मत को कोस रहे हैं कि पता नहीं कहीं ड्रॉ रद्द हो गया तो दुबारा किस्मत मेहरबान होगी भी कि नहीं...हालात वैसे ही हैं जैसे रनआउट का फ़ैसला जब थर्ड अंपायर के पास पेंडिंग रहता है तो फिफ्टी-फिफ्टी का विज्ञापन नज़र आता है। ये तो है दिल्ली की बात...लेकिन, मुंबई भी कम नहीं है। यहां भी सस्ते सरकारी फ्लैट के लिए इन दिनों फॉर्म बिक रहे हैं..कीमत है सौ रुपये, लेकिन कुछ लोग इसे हज़ारों में भी बेच रहे थे। अब भला सौ रुपये के फॉर्म हज़ारों में लोग खरीद क्यों रहे थे, तो इसका जवाब ये है कि इन फॉर्मों के साथ फ्लैट मिलने की गारंटी भी बेची जा रही थी। अब ये तो पता नहीं कि ये महज ठगी थी या यहां भी दिल्ली की तरह अंदर से सेटिंग थी और हज़ारों में फॉर्म बेचना इस डील की पेशगी मात्र थी। लेकिन, चौंकिए मत...घर के घोटालेबाज़ सिर्फ महानगरों तक ही सिमटे नहीं हैं। हां, चूंकि ये महानगर के मामले हैं, इसलिए इनपर सबकी तवज्जों ज़रूर पहले और ज़्यादा जाती है। ..सरकार की एक योजना है, इंदिरा आवास योजना..बेहद गरीब तबके के लोगों को भी घर नसीब हो, इसके लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जाती है। अब गरीब तो गरीब ठहरे, बाबुओं तक पहुंच नहीं सकते, इसलिए दलालों की चिरौरी करते हैं। ये दलाल मुखिया जी से लेकर बाबुओं तक बेघर गरीबों की लिस्ट पहुंचाते हैं और ज़ाहिर सी बात है कि वो समाजसेवा कतई नहीं करते। बाक़ायदा कमीशन काटकर चेक थमाते हैं। तो बताइए कहां नहीं हैं घर के घोटालेबाज़। वैसे उन लोगों को भी खुश होने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं, जो डीडीए, म्हाडा या इंदिरा आवास योजना जैसे पचड़ों से दूर रहकर आशियाना बसाना चाहते हैं। ज़रा सोच-समझकर बिल्डर से बात कीजिएगा क्योंकि सुपर एरिया-कारपेट एरिया, पीएलसी वगैरह का चक्कर घनचक्कर से कम नहीं और वो भी ज़्यादा खुश न हों, जो ज़मीन खरीदकर या अपनी जमीन पर घर बनवा रहे हैं क्योंकि ठेकेदार से बनवाया तो भी फंसे और खुद बनाया तो भी...वो ऐसे कि सीमेंट, छड़, कांच, प्लम्बर, इलेक्ट्रिक फिटिंग जैसे मामले गैरअनुभवी लोगों के छक्के छुड़ा कर ही दम लेते हैं। और ये हालात हर जगह है..यूं ही नहीं कहते कि भारत विविधता में एकता का देश है। लेकिन, हिम्मत मत हारिए..क्योंकि घर तो सबका सपना है और ज़िंदगी में और कुछ हो या नहीं, सपना ही तो अपना है।
आपका
परम

Tuesday, January 6, 2009

..कुछ भी ठीक नहीं

नोएडा में एक छात्रा के साथ गैंग रेप हुआ। क्रिकेट खेलकर लौट रहे कुछ लड़कों ने मॉल के सामने से छात्रा को अगवा किया और हैवानों को शायद जीती-जागती लड़की भी बैट और बॉल की तरह ही खेलने का सामान नज़र आई। वैसे बलात्कार की घटनाएं किसी को अब नहीं चौंकातीं। आदी हो चुके हैं हम सब सुन सुनकर..चलती कार में बलात्कार, घर में बलात्कार.. बहस भी बहुत हो चुकी..बलात्कारी को सख्त सज़ा मिलने से लेकर फांसी दिए जाने तक...और नतीजा भी हम देख रहे हैं, कुछ होना-जाना नहीं.. बिगड़ैल रइसजादों को नोटों की गड्डी और कार संस्कार में देने वाले मां-बाप को पता नहीं अपनी औलाद की ये कारगुजारियां कैसी लगती होंगी? सड़क किनारे कार खड़ी कर पानी की तरह शराब पीकर देर रात घर लौटने वाले अपने बच्चों से क्या सवाल करते होंगे ये लोग, ये भी भगवान जानें.. खैर..अब तो इन बातों पर न लिखने को जी चाहता है, न ही बात करने का..क्योंकि सिर्फ लिखने-बोलने से कुछ होना-जाना नहीं है। चलिए, दूसरी बात करते हैं...
मेरा मन इन दिनों कुछ उदास है,
हर वक्त ये किसी को ढूंढता आसपास है..
इस बात से बेख़बर कि
जो खो गया, अब बेकार, उसकी तलाश है।
पिछले कुछ वक्त से मैं इस ब्लॉग को वक्त नहीं दे पा रहा हूं। कुछ व्यक्तिगत परेशानियां भी हैं, कुछ जिम्मेदारियां भी हैं, जिनको निभानी है। अगले एक हफ्ते तक शायद आपसे संपर्क नहीं हो पाए, लेकिन उम्मीद है, अगले हफ्ते जब ब्लॉग पर लौटूंगा, आपका वही प्यार, वही साथ मिलेगा।
आपका
परम

Friday, January 2, 2009

..शुभकामनाएं

सबसे पहले तो सभी मित्रों और पाठकों को नए साल की शुभकामनाएं...चाहता तो था कि आतंकमुक्त नववर्ष की बधाई दूं, लेकिन पहले ही दिन गुवाहाटी में धमाके हो गए और कई बेमौत मारे गए। उधर, जम्मू में आतंकियों से मुठभेड़ में जांबाज शहीद हो गए। चाहता था कि मंदी की मार से उबरने की बधाई भी दूं, लेकिन दिल झूठी तसल्ली देना नहीं चाहता। पिछले दो-चार दिन का किस्सा सुनाता हूं। मीडिया में काम करने वाले मिश्रा जी और कुमार साहब को पता चला चला कि इन दिनों मकान सस्ते मिल रहे हैं। अब मिश्रा जी की पत्नी चेतावनी दे चुकी हैं कि इस मंदी और राहत में घर नहीं खरीदा तो फिर दाना-पानी बंद समझें। उधर, कुमार साहब के घर पर मार कर रहे लड़की वाले सबसे पहले यही सवाल दाग रहे हैं कि दस साल की नौकरी के बाद दिल्ली में घर क्यों नहीं लिया...सो दोनों के साथ मुझे भी एक बार फिर घर खरीदने की इच्छा दुबारा हो गई। बहरहाल कुमार साहब को जो घर जंचा वो 32 लाख का था और कुल मिलाकर हिसाब ये बैठा कि 35 तक मामला जमेगा..21 तो फायनांस हो जाएगा बाकी 14 का जुगाड़ करें। डीलर ने कहा, जेब में दस पेटी हों तो घर ढूंढो, वर्ना सपना देखते रहो। तबसे वो सपना देख रहे हैं, पता नहीं कब सच होगा..उधर, मिश्रा जी की माली हालत कुछ ज़्यादा ही पतली है। पूरी ज़िम्मेदारी सिर पर है और जेब खाली की खाली...बेचारे समझ ही नहीं पा रहे कि करें तो क्या करें..जुगाड़ में हैं कि अभी कोई एडवांस बुकिंग कराकर बीवी को समझा लें...सो बिल्डर से ईएमआई शेयरिंग स्कीम पर माथापच्ची कर रहे हैं। भगवान भला करें..शायद मामला फिट हो जाए ताकि वो बीवी की नज़र में हिट हो जाएं वर्ना मेरी तरह फिसड्डी ही रह जाएंगे। बहरहाल, आज ही के दिन पिछले महीने इस ब्लॉग पर मैंने अपना पहला लेख लिखा था। एक महीने हो गए, इस एक महीने में अपने इस अनुभव को कुछ इस अंदाज़ में बयां करना चाहूंगा...

यहां हर किसी की सोच है,
हर सोच का आकार है..
ये ब्लॉगर्स की दुनिया है,
दिलों में जलन नहीं..सिर्फ प्यार है..प्यार है..प्यार है..

आप सबका शुक्रिया...आप सबको नए साल की शुभकामनाएं...हम सब ब्लॉग के जरिये, इसी तरह एक-दूसरे से जुड़े रहें..एक-दूसरे का अनुभव बांटे...गम बांटे और प्यार तो बांट ही रहे हैं..बांटते ही रहेंगे। happy new year
आपका
परम