Friday, March 13, 2009

बिटिया ना बिसराइए

दिल्ली से सटे नोएडा के एक गांव की पांच बेटियां और उसी गांव की एक बहू ने एक साथ एक ही साल दिल्ली पुलिस की भर्ती परीक्षा पास कर अपने लिए वर्दी पक्की कर ली है। बहुत जल्दी गांव की ये बेटियां वर्दी में होंगी। ये इतना आसान नहीं था, क्योंकि गांव के माहौल में इनके परिवार के लोग पहले तो लड़कियों और बहुओं की नौकरी के पक्ष में ही नहीं थे और अगर थोड़ा-बहुत मन बना भी रहे थे तो स्कूल टीचर, सिलाई-बुनाई और ब्यूटीशियन से आगे तक नहीं सोच पा रहे थे। बावजूद इसके इन लड़कियों ने अपना सपना पूरा किया। अंशुमाली जी ने पाकिस्तान में महिलाओं को आईकार्ड पर पाबंदी वाले तालिबान के फरमान के बारे में मेरे लेख पर अहम टिप्पणी दी है कि भारत में भी बहुएं जलाई जाती हैं, दहेज उत्पीड़न होता है, बलात्कार होते हैं और महिलाएं दबी कुचली हैं। हकीकत भी यही है, जो बेहद शर्मनाक है। जिस देश में मातृ शक्ति की पूजा सदियों से होती रही है, उसी देश की ऐसी स्थिति देखकर सिर शर्म से झुक जाता है। लेकिन, यहीं वेदकालीन भारत में लोपामुद्रा जैसी तेजस्विनी भी हुईं और यहां तक कि मुस्लिम सल्तनतों के शासन में रजिया भी सुल्तान बनीं। यहीं किरण बेदी जैसी जांबाज महिला आईपीएस भी हुईं। और आज की तारीख में तो आगे बढ़ने वाली महिलाओं के लिए तो तरक्की के तमाम रास्ते खुले हैं। एक चैनल है कलर्स...वो इंटरटेनमेंट के साथ-साथ बड़े ही सशक्त तरीके से महिलाओं से जुड़े मामले उठा रहा है। इसके सीरियल बालिका वधू में जहां बाल विवाह, बाल विधवा जैसे मुद्दे उठे हैं, वहीं इसी चैनल के नए सीरियल ना आना इस देश लाडो में नवजात लड़कियों की हत्या का मामला उठाया जा रहा है। देश में पुरुष और महिला का अनुपात गिरता जा रहा है। एक हज़ार पुरुष के बदले महज सवा नौ सौ महिलाएं हैं और कुछ राज्यों में तो हालात और भी ख़राब हैं। इसके बावजूद कानूनन रोक को दरकिनार कर भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। मेरे एक मित्र हैं, जो इन दिनों बेहद तनाव में हैं। वजह ये है कि उनकी एक बेटी है और पत्नी को हर कीमत पर बेटा चाहिए। वो अपनी पत्नी को ये बताना नहीं चाहते कि पहली संतान के जन्म के वक्त ही डॉक्टर ने दूसरे बच्चे के बारे में सोचने तक से मना कर दिया था कि खतरा हो सकता है। लेकिन, सोचने वाली बात ये है कि क्या वाकई बेटे की इतनी ज़रूरत है जिसकी भरपाई बेटियां नहीं कर सकतीं। ईमानदारी से कहूं तो कम से कम मुझे नहीं लगता कि घर पर कभी-कभार पैसे भेजने या साल में एक-दो बार चक्कर काटने के अलावा बेटा होने का फ़र्ज वाकई निभा रहा हूं। यहां तक कि मेरी बहनें मुझसे ज्यादा पापा से फोन पर बात करती हैं। शायद यही अहसास मुझे अपनी इकलौती बेटी को इकलौती ही बनाए रखने की प्रेरणा देता है। खैर, लगता है भटक गया...इसलिए फिलहाल माफी के साथ विदा लेना ही उचित होगा..
आपका
परम

5 comments:

राज भाटिय़ा said...

अजी यह कुछ ही मान्सिक रुप से गरस्त लोग ही बेटियो को वो समान नही देते होगे, बहुये जलाते होगे, या फ़िर दहेज मांगते होगे, मेने अपनी जिन्दगी मै ऎसा कोई केस नही देखा, ओर बेटा बेटी दोनो ही मां बाप को प्यारे है, बल्कि बेटी ज्यादा प्यरी होती है, छोटे होते हम लोगो की खुब पिटाई हो जाती थी, लेकिन किसी भी लडकी की कभी पिताई नही देखी थी,
ओर आप की बात १००% सही है कि लडकियां ही मां बाप की ज्यादा देख भाल करती है, ओर दुनिया मै सिर्फ़ भारत ही एक ऎसा देश है जहां नारी भगवान से भी ज्यादा पुजनीय है, कुछ अपवदो को छोड कर.
बहुत अच्छी लगी आप की यह पोस्ट.
धन्यवाद

Satish Chandra Satyarthi said...

बहुत ही बेहतरीन पोस्ट
लड़कियों के प्रति समाज को अपना नजरिया बदलना होगा.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बेटियाँ किसी तरह से पुरुषों से कम नहीं।

संगीता पुरी said...

भई मुझे तो बेटियां किसी भी मामलों में बेटों से कम नहीं दिखाई देती ... पर पता नहीं समाज की सोंच में कब अंतर आएगा ?

mehek said...

aasha hai wo betiyaan aur ahut bhi aage hi aage bhadhati jaye,unke kadam khub tarakki kare,jo unhone hasil kiyamehnat se bahut kabile tarif hai.