#सुशासन_का_जनाजा_पार्ट_2
#सुप्रभात। एक फिल्मी डॉयलॉग याद आ रहा है, साला एक मच्छड़ आदमी को हिजड़ा बना देता है, नीतीश कुमार पर नया डॉयलॉग बन सकता है, एक कुर्सी आदमी को थेथर बना देती है। बिहार में महागठबंधन के एक दिग्गज नेता हैं, हालांकि इस बार अप्रत्याशित रूप से चुनाव हार गए, उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान जब लोग गालियां देते थे, बेइज्जत करते थे तो गहरे श्याम वर्ण पर सफेद बत्तीसी चमक उठती थी, दोनों हाथ जोड़े मुस्कुराते रहते थे, एक बार मैंने पूछा कि आपको ये अपमान बुरा नहीं लगता तो बोले-नहीं, इससे खुशी होती है क्योंकि जीत पक्की हो जाती है, जनता सोचती है कि कितना भला नेता है, मुंह पर भी गाली देने पर बेचारा कुछ नहीं बोलता! ये फॉर्मूला कामयाब रहा और वो कई-कई बार विधायक रहे, मंत्री बने। ये नीतीश जी की पार्टी के ही नेता हैं। सीधी सी बात है, राजनीति में सत्ता अहम है, अपमान-सम्मान-नीति-सिद्धांत-विकास-विनाश सब मोह-माया है। नीतीश की फजीहत जारी है और वो अदभुत बेशर्मी के साथ इसे झेल भी रहे हैं। कल नारे लगे-जेल के ताले टूट गए, सरकार के साहेब छूट गए और साहेब ने भागलपुर में ‘परिस्थितियों के सीएम’ कहकर नीतीश कुमार को औकात दिखाई तो उनका काफिला जब समस्तीपुर-मुज़फ्फरपुर सीमा के चिकनौटा-मदरसा चौक पर पहुंचा तो शराबबंदी पर भी लताड़ लगाई-‘शराबबंदी काला कानून है, बेटा पिये और बाप को सज़ा हो, ये कैसा कानून है? कोई फाइव स्टार होटल नहीं खुल सकता क्योंकि बियर बार ही नहीं हो सकता। शराब से ज्यादा हानिकारक सिगरेट है, उसे क्यों नहीं बंद किया जा रहा? कानून के बदले जागरुकता से शराबबंदी होता तो बेहतर होता।‘ नीतीश ने साहेब का ज्ञान कितना ग्रहण किया, ये तो वही जानें, लेकिन बिहार की जनता देख रही है कि लालू तो लालू, शहाबुद्दीन तक की नज़र में सीएम की क्या औकात और अहमियत है? लालूजी चाहें तो शहाबुद्दीन का मुंह बंद करवा सकते हैं, लेकिन चाहेंगे तभी जब नीतीश की फजीहत पूरी हो जाएगी क्योंकि लगाम कब ढीली रखनी है और कब कसनी है, ये लालूजी से बेहतर कोई नहीं जानता। नीतीश की राजनीति हमेशा से सत्ताकेंद्रित रही है, इसके लिए वो जिस थाली में खाते हैं, उसमें छेद भी करते रहे हैं। दूसरी ओर, लालू डंके की चोट पर दोस्ती-दुश्मनी दोनों निभाते हैं। बिहार और हरियाणा के एक पूर्व राज्यपाल शफी कुरैशी हाल में दिवंगत हो गए, हरियाणा में तीन दिन राजकीय शोक रहा, बिहार में तीन घंटे का भी नहीं, जबकि हरियाणा में एक ही बार राज्यपाल थे, बिहार में दो-दो बार..ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने राज्यपाल रहते चारा घोटाले में लालू के खिलाफ मुकदमे की मंजूरी दी थी और लालू नहीं चाहते थे तो नीतीश की क्या औकात कि मुख्यमंत्री होते हुए भी राज्यपाल के निधन पर औपचारिक शोक की घोषणा कर दें? नीतीश समर्थक भी अपने नेता की दुर्गति और लालू के आगे शर्मनाक समर्पण से आहत हैं। नमो विरोधी तो नीतीश को पीएम का विकल्प तक मान बैठे थे। नीतीश का राजनीतिक एजेंडा शराबबंदी पूरे देश की महिलाओं और पुरुषों के भी एक बड़े वर्ग को आकर्षित करने वाला एजेंडा भी है, लेकिन क्या देश नमो के एक ऐसे विकल्प को अपना समर्थन दे सकता है, जिसने सिर्फ सत्ता में रहने के लिए सिद्धांतों की तिलांजलि दे दी, जेलयाफ्ता लालू के चरणपूजक हों और 63 संगीन मामलों के कुख्यात शहाबुद्दीन को सत्तासंरक्षण देने वाला सीएम हो? जवाब है नहीं..और इसीलिए मुझे लगता है कि शहाबुद्दीन की रिहाई नीतीश के राजनीतिक करियर के सबसे अहम पड़ाव पर सबसे बड़ी चूक है। नीतीश ये भूल गए कि वो लालू नहीं हैं, नीतीश हैं, जिनकी पहचान है सुशासन और विकास। लालू अपराधियों के संरक्षक के तौर पर जाने जाते हैं और यही उनका आधार भी है। मुस्लिमों और यादवों के अपराधी तत्वों का संरक्षण लालू की ताकत है और लालू ने कभी इसे छिपाने की कोशिश भी नहीं की। दूसरी ओर, नीतीश ने अपराधियों को संरक्षण देने की लालू की नीति बरकरार रखते हुए भी अपनी एक ऐसी छवि बनाई जो सुशासन का प्रतीक थी, लेकिन शहाबुद्दीन प्रकरण ने ये साबित कर दिया कि नीतीश अब अपनी ही छाया हैं और बिहार में जो चल रहा है वो सब बस लालू की माया है। बिहार में अगर महागठबंधन की सत्ता न होती तो अपराध कम हो जाते ये गारंटी तो भाजपा भी नहीं दे सकती क्योंकि मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार होते हुए भी महिलाओं के खिलाफ अपराध सबसे ज्यादा हो ही रहे हैं, लेकिन ये गारंटी कोई भी दे सकता है कि बिहार में अगर राजद सरकार में न होता तो अपराध कम हो जाते। चलिए मिलते हैं फिर, आपका दिन शुभ हो।
11 सितंबर को मेरे फेसबुक प्रोफाइल https://www.facebook.com/paramendra.mohan/posts/1135905986495882 पर पोस्ट इस अंक पर 126 लाइक्स, 26 शेयर्स, 9 कमेंट्स आए
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