Tuesday, December 30, 2008

..जीत की जय

हम जश्न के मूड में हैं। नए साल का जश्न मनाने की तैयारी कर रहे हैं। एक और साल को हराकर जीतने का जश्न मनाने की तैयारी क्योंकि हम हमेशा जीतते हैं, कभी हारते नहीं। जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुए,सबकी जीत हुई। बुलेट पर बैलेट की जीत, आतंक पर लोकतंत्र की जीत, जम्हूरियत की जीत और फिर जम्हूरियत की जीत पर जश्न मना। जीत उसकी भी हुई, जिसने अमरनाथ जमीन के धार्मिक मसले को सियासी बनाकर खुद की ताकत एक से ग्यारह कर ली। जीत उसकी भी हुई, जिसने अलगाववादियों के मुजफ्फराबाद कूच को सियासी शाबासी देकर अपनी सीटें बढ़ा ली। जीत उसकी भी, जिसकी सरकार ने पूरा बवाल खड़ा कर दिया, फिर भी नई सरकार में शामिल हो गए। और जीत उसकी भी, जिसके वोट सात फीसदी वोट कट गए, लेकिन सबसे बड़ी पार्टी बनी की बनी रह गई। जीत परिवारवाद की भी, जिसने अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढी को भी सीएम की गद्दी दिला दी। और जब इतनी सारी जीत एक साथ हुई हो तो जम्हूरियत की जीत का जश्न लाजिमी भी तो है। इसमें किसी को भी शक नहीं होना चाहिए क्योंकि घाटी में 61 फीसदी वोटिंग वाकई में काफी उत्साह बढ़ाने वाला है। लोग सोचने पर मजबूर हो गए कि आखिर क्या हुआ आतंकवादियों को, कहां सो गए अलगाववादी, लेकिन बाद में फारूक ने ये जाहिर किया कि अलगाववादी इस बार चुनाव प्रक्रिया को बाधित नहीं करने के बारे में कह चुके थे और पाकिस्तान भी खामोश था। वैसे, कश्मीर से पहले जीत का जश्न हम मुंबई में भी मना रहे थे। ये जीत थी, अपने घर में पाकिस्तान से घुस आए दस आतंकियों में से नौ को मार गिराने की, जिन्होंने 183 लोगों को मार डाला था। लेकिन, अपनी खुफिया नाकामियों, सुरक्षा नाकामियों को भूलकर हमने जज्बे की जीत का जश्न मनाया। आज भी हम सात साल पहले संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों को मार गिराने की घटना को जांबाजों की जांबाजी की जीत कहकर मनाते हैं। वैसे जीत हमारे संस्कार में भी है...हम मातम मनाने में यकीन नहीं करते, मातम भूलाने में ज़्यादा यकीन करते हैं। याद नहीं आपको, पिता की अस्थियां घर में रखी थीं, और बेटा ड्रग्स और दारू के साथ मातम मनाते मनाते अस्पताल पहुंच गया था। तो हम क्यों मनाएं मातम, क्यों मनाएं हार का गम..हम जीतते आए हैं तो जीत का जश्न ही मनाएंगे। जय हो जीत की..जश्न हो जीत का...
आपका
परम

Friday, December 26, 2008

..लौटा दिया मुआवज़ा

..यूपी में मारे गए पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर मनोज गुप्ता की ही हत्या के मामले को आगे बढ़ाते हैं। वो इसलिए कि गिरिजेश जी की प्रतिक्रिया पर जिस तरह से संजीदा प्रतिक्रिया मिल रही हैं, उसपर बहस ज़रूरी है। संजय सिन्हा जी ने भी लिखा है कि (चूंकि उन्होंने एक प्रशंसक के तौर पर अपना विचार दिया है, इसलिए चाहते हुए भी उनका परिचय देना ठीक नहीं होगा).. काश जो हक़ीक़त गिरिजेश जी ने बताई है, वो हक़ीक़त नहीं होती। लेकिन, हक़ीक़त तो ये है ही...अब देखिए ना..पोस्टमार्टम रिपोर्ट..मनोज गुप्ता के सिर पर इतने वार किए गए कि खोपड़ी की हड्डी ही टूट गई और जान चली गई। इतना ही नहीं, बिजली के तेज़ झटके उन्हें दिए गए। यानी हत्यारों ने गुप्ता को मारने के साथ-साथ दूसरे इंजीनियरों को भी ये संदेश देने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि दबंग विधायक को रंगदारी न होने का अंजाम कितना भयावह हो सकता है। और जहां तक पुलिस का सवाल है, दबंगई के आगे वो किस तरह नतमस्तक हो गई इसका अंदाज़ा तो इसी से लग जाता है कि जानबूझकर केस को इतना कमजोर बनाया कि पुलिस रिमांड पर भी शेखर तिवारी को नहीं लिया जा सका और कोर्ट ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया। अगले दिन गैंगस्टर एक्ट लगाया गया। अब सियासी दबाव में अगर कुछ ठोस हो तो हो वर्ना तिवारी तो फंसने से रहे..ख़ैर। गिरिजेश जी ने यूपी के पीडब्ल्यूडी में ठेका मिलने से लेकर पेमेंट चेक बनने तक फैली कमीशनखोरी और घूसखोरी का जो ब्यौरा दिया, उस पर भी कुछ होना चाहिए। पता चला कि गुप्ता जी के बेटे ने यूपी सरकार से मिला मुआवजा लेने से इनकार कर दिया। एक साथी की प्रतिक्रिया थी..अगर वाकई सैलरी पर परिवार चल रहा होता तो ज़रूर मुआवज़ा ले लेते क्योंकि परिवार के मुखिया की मौत के बाद घर चलाना आसान नहीं..अब इस बारे में ज़्यादा कहना उचित नहीं होगा क्योंकि जो नहीं रहे,और जिनके बारे में कोई ठोस सबूत नहीं हो, उनके बारे में आरोप उचित नहीं हैं। लेकिन, तमाम इंजीनियर या बाबू कितने ईमानदार हैं, इस बारे में शायद कहने की ज़रूरत भी न पड़े। ज़रा सोचिए..आखिर कबतक चलेगा ऐसा..और ये भी कि इक़बाल कासकर ने आखिर दाऊद इब्राहिम की भांजी की शादी के लिए भी तो नहीं की चंदा उगाही..27 को मुंबई के डोंगरी इलाके में नूरबाग हॉल की सजावट बयां कर रही है कि खर्चा बड़ा किया गया है..लेकिन, इस बारे में बात बाद में..
आपका
परम

Thursday, December 25, 2008

..कौन किस पर भारी?

एक ओर मुंबई हमलों के बाद से बना दहशत का माहौल..पाकिस्तान को युद्ध की ओर घसीटने पर आमादा पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, आतंकवादी संगठन और इन सबसे खड़ा हो रहा युद्ध का हौव्वा..दूसरी ओर, दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी की मार झेलते हुए साठ रुपये किलो दाल और चालीस रुपये किलो सब्ज़ी खरीदने पर मजबूर आम भारतीय..लेकिन, इन दोनों के बीच एक ऐसी दहाड़, जिसे सुनने के लिए लोग बेताब हुए जा रहे हैं। जी हां..इस माहौल में आई आमिर ख़ान की गजनी ने आते ही ग़जब ढा दिया है। एक तो फिल्म ने पेड प्रीमियर के नाम पर कमाई की, फिर एक दिन पहले ही रीलीज़ होकर बॉक्स ऑफिस पर कब्ज़ा जमाया और अब हालत ये है कि अगले पांच दिन तक एडवांस बुकिंग भी फुल है। वाकई भारत में क्रिकेट और अच्छी फिल्म का जबर्दस्त क्रेज है। मल्टीप्लेक्सों में सत्तर रुपये से लेकर डेढ़ सौ रुपये तक में टिकट मिलते हैं,लेकिन यहां भी मार पड़ रही है। वैसे अब फिल्म के हिट..सुपरहिट होने का फॉर्मूला भी बदल गया है। पहले प्लेटिनम, गोल्डन या सिल्वर जुबली के जरिये पैमाना तय होता था अब प्रिंट्स की तादाद और हफ्तेवार कलेक्शन से इसका पता चलता है। हाल के दिनों में किसी फिल्म ने ओपनिंग के दिन 90 फीसदी कलेक्शन नहीं किया था, जिसे आमिर ने गजनी बनकर दिखा दिया। तो अब बताइए दहशत, मंदी और गजनी में कौन किसपर भारी है?
आपका
परम

..हमाम में सब नंगे

..आजतक में कार्यरत गिरिजेश भाई ने यूपी में इंजीनियर की हत्या को महज एक वारदात के नजरिये से देखने के, एक बड़े कैनवस में रखकर देखा है..एक बेहद संजीदा और गंभीर मामले पर पढ़िए, गिरिजेश जी की बेबाक प्रतिक्रिया....

नेताओं, अभियंताओं और ठेकेदारों के गठजोड़ ने खासकर उत्तर प्रदेश में जो तंत्र खड़ा कर रखा है, उसमें मनोज गुप्ता जैसे लोगों की बलि चढ़ती ही रहेगी। सवाल किसी एक एमएलए के रंगदारी वसूलने या फिर किसी एक अभियंता की हत्या का नहीं है। सवाल उस सिस्टम का है, जिसे लालची ठेकेदारों और भ्रष्ट मशीनरी ने पैदा किया और सिरे पनाह देने की कीमत वसूलने के लिए नेता का चोला ओढ़े गुंडे आ धमके..। मनोज गुप्ता की दर्दनाक हत्या की ख़बर मिली, तो मुझे कुछ साल पहले की वो घटना याद आ गई, जब यूपी के इंजीनियर एसोसिएशन ने तबके पीडब्ल्यूडी मंत्री पर उगाही का आरोप लगाया था..। सिर्फ ज़ुबानी नहीं, बल्कि बाकायदा चिट्ठी लिखकर। हुआ क्या? मंत्री जी सदन में रोते रहे और नेता दलगत राजनीति भूलकर उनके आंसू पोंछने में जुट गए। जांच का तमाशा भी हुआ, लेकिन क्या किसी को याद है कि उस जांच का नतीजा क्या निकला? क्या किसी ने ईमानदारी से ये पता लगाने की कोशिश की कि इंजीनियर एसोसिएशन ने मंत्री पर इतना संगीन इल्ज़ाम क्यों लगाया? यूपी में पीडब्ल्यूडी के कामकाज की मामूली समझ रखने वाले को भी मालूम है कि यहां वर्क ऑर्डर के नाम पर कैसा खेल चलता है? दफ्तर में कदम रखने वाले छोटे से छोटे ठेकेदार को भी मालूम है कि बिना नज़राना दिए ना तो ठेका पास होगा और ना ही पेमेंट का चेक बनेगा? हो सकता है कि ये सिर्फ झूठा दुष्प्रचार हो, लेकिन ज़रा गौर से सोचिए कि क्या कोई विधायक किसी इंजीनियर से दस लाख रुपये का 'चंदा' यूं ही मांगने लगेगा? क्या एमएलए को मालूम नहीं कि एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर की सैलरी कितनी होती है? और क्या कोई एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर अपनी सैलरी से इतने पैसे बचा सकता है कि वो दस लाख रुपये चंदा देने की हैसियत रखता हो? मुझे दिवंगत इंजीनियर के परिवार से पूरी सहानुभूति है, लेकिन अपने साथी की मौत से नाराज़ इंजीनियर एसोसिएशन के ओहदेदारों के पास क्या है कोई जवाब कि आखिर उन्होंने अपने सदस्यों की छवि पर लगने वाले दाग़ मिटाने के लिए कोई पहल क्यों नहीं की? क्यों बना ली ऐसी छवि कि हर कोई ये समझने लगा है कि पीडब्ल्यूडी महकमा तो दुधारू गाय है और इस महकमे के मुलाज़िम इस गाय को दूह-दूहकर मलाई काट रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई सबको पता है कि पीडब्ल्यूडी के करोड़ों रुपये के ठेकों में लाखों रुपये का कमीशन फिक्स होता है..। कमीशन की इसी मोटी मलाई में हिस्सेदारी की चाहत रखने वालों की भीड़ बढ़ रही है। मनोज गुप्ता उसी भीड़ की चाहत का शिकार हो गए। डर इस बात का है कि एक बलि लेकर भी ये प्यास नहीं बुझेगी, क्योंकि इस बार भी घटना की जड़ काटने की बजाय असली मुद्दे को जड़ से काट देने की राजनीति शुरू हो चुकी है। बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इंजीनियर एसोसिएशन के खुले आरोप पत्र के बाद हुई थी..।
गिरिजेश मिश्र

Wednesday, December 24, 2008

..लोकतंत्र में गुंडातंत्र!

बेचारे पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर को क्या पता था कि सत्ताधारी पार्टी के विधायक को पैसा न देने पर मिलेगी सज़ा-ए-मौत..मंजूनाथ का हश्र शायद भूल गए होंगे और जान गंवा बैठे। ख़ैर विधायक जी तो गिरफ्तार हो चुके हैं और ज़्यादा उम्मीद भी इसी की है कि राजनीतिक साज़िश का रोना रोकर और लीपापोती कराकर रिहा भी हो जाएंगे। वैसे भी ताकत के सामने कमज़ोर टिकते कहां हैं? अब देखिए न..दो-तीन दिन पहले दिल्ली के अंतरराज्यीय बस अड्डा से नोएडा आने वाली ब्लूलाइन बस के स्टाफ ने एक मूक-बधिर छात्र को जमकर धुन डाला। बेचारा छात्र हर दिन गुड़गांव से बस अड्डा और फिर वहां से बस बदलकर नोएडा आता है ताकि क्लास कर सके। सरकार की ओर से पास मिला हुआ है, लेकिन बस वाले ने एक ना सुनी। साथ में दो-तीन मूक-बधिर छात्राएं भी थीं, जिन्होंने बस से उतरकर शिक्षक को फोन पर एसएमएस किया। इसके बाद घायल पीड़ित छात्र, जिसे बस वालों ने अगले स्टॉप पर उतार दिया था, को अस्पताल ले जाया गया। सवाल ये है कि ये छात्र और उसके साथी तो बोल नहीं सकते थे, लेकिन बस के बाक़ी यात्री तो मूक-बधिर नहीं थे..उन्होंने भी सबकुछ देखने के बावजूद कोई विरोध नहीं किया। इसे कहते हैं ताकत का बोलबाला और कमज़ोर की बोलती बंद। वैसे यूपी सरकार ने भी मारे गए इंजीनियर की पत्नी को फौरन पांच लाख रुपये मुआवज़ा और सरकारी नौकरी का लॉलीपॉप थमाकर बोलती बंद कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब बेचारी का पति तो वैसे भी वापस नहीं आने वाला, तो भागते भूत की लंगोट ही भली..सच में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में गुंडातंत्र का इस कदर हावी होना शर्मिंदा करता है, लेकिन हम सब यही कहना पसंद करते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती हैं।
आपका
परम

Tuesday, December 23, 2008

..अब आगे क्या?

मनमोहन सिंह ने साफ कर दिया कि भारत पाकिस्तान से युद्ध नहीं चाहता..कुछ लोग कह रहे हैं भारत डर गया..कुछ कह रहे हैं कि पाकिस्तान पर कार्रवाई के लिए दुनिया पर दबाव डालने की कोशिशें बाउंस बैक हो गईं..पहले प्रणब मुखर्जी हर दिन कह रहे थे कि भारत के पास सभी विकल्प खुले हैं तो अब एक विकल्प तो बंद हो गया और पाकिस्तान को दूसरे विकल्पों की बहुत ज़्यादा फिक्र हो, ऐसा कम-से-कम अभी तो नहीं दिख रहा। इसमें किसी को शक नहीं कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं हो सकता, ये भी ठीक है कि मंदी के इस दौर में युद्ध से हालात और ख़राब होंगे। लेकिन, ये सवाल भी बरकरार है कि आखिर पाकिस्तान से कैसे निपटे भारत? अमेरिकी सरकार के नुमाइंदों का ये हाल है कि वो भारत आकर भारत की तरह और पाकिस्तान जाकर पाकिस्तान की तरह बयान देते हैं। सबसे बड़े लोकतंत्र की दुहाई देकर भारत को स्वाभाविक दोस्त बताते हैं तो आतंकवाद के खिलाफ जंग में पाकिस्तान की भूमिका के लिए उसकी पीठ थपथपाते हैं। खुद पर जब बनी तो अफगानिस्तान और इराक तक को रौंद दिया और भारत की बात आती है तो संयम की नसीहत दे देते हैं। समस्या वहीं की वहीं है..दूसरों से अपने ज़ख्म सहलवाने की आदत भूलकर इसकी दवा खुद तलाशनी है। कूटनीतिक कोशिशें जारी रहें, जारी रहनी भी चाहिए..खुद को इतना मजबूत बनाया जाए ताकि आतंकवादी हमले फिर ना हो सकें..इसमें भी कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए..लेकिन साथ ही लाचारी, बेबसी इतनी भी ना हो कि तमाम सबूत होते हुए भी हम कुछ ना कर सकें। पाकिस्तान को आखिर कैसे मिले सबक और कौन सिखाए सबक..इस सवाल का जवाब तलाशना ही होगा क्योंकि ये सवाल अब देश के सम्मान का भी है।
आपका
परम

Monday, December 22, 2008

..बदनाम का बड़ा नाम!

लावारिस का एक गाना बहुत हिट हुआ था..जो है नाम वाला, वही तो बदनाम है..अब ज़रा न्यूज़वीक की उस लिस्ट की चर्चा, जिसमें ओबामा भी हैं और ओसामा भी..दुनिया को शांति का संदेश देने वाले पोप बेनेडिक्ट हैं तो उत्तरी कोरिया के तानाशाह माने जाने वाले किम जोंग भी.. पाकिस्तान को ललकार रही यूपीए सरकार की धुरी सोनिया गांधी हैं तो आतंकवाद को शह देने वाली पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल कियानी भी..तिब्बती धर्म गुरू दलाई लामा हैं तो उनके धुर विरोधी चीनी प्रमुख हू जिंताओ भी..हां, कुछ दिन बाद अगर ये लिस्ट आती तो उसमें शायद अंतुले भी होते..अंतुले का कहना है कि वो सिर्फ अल्लाह से डरते हैं..वैसे दो दिन पहले ये भी कह रहे थे कि वो कांग्रेस के सच्चे सिपाही हैं..शायद अल्लाह के अलावा आलाकमान से भी डर रहे थे..अब दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी साथियों का साथ मिला तो कार्रवाई का डर कम हो गया..अंतुले अड़े हैं..कुछ गलत नहीं कहा..अब और लोग भी पीठ थपथपा रहे हैं कि भाई सच में क्या गलत कहा? संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी क्यों नहीं दी गई, अंतुले को इसकी फिक्र नहीं..आज ही के दिन यानी 22 दिसंबर 2000 को लालकिला पर हमला करने वाले अशफाक को निचली अदालत और फिर हाई कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई थी, उसका मामला सुप्रीम कोर्ट में अबतक लटका है, कब निपटेगा, नहीं पता..लेकिन किसी को इसकी भी फिक्र नहीं..फिक्र है तो मालेगांव धमाके की..जिसे वो शहीद हेमंत करकरे की मौत पर सियासत के बहाने ज़िंदा रखना चाहते हैं। वजह सियासी हो या मज़हबी, अंतुले को फायदे की उम्मीद है। कांग्रेस अंतुले पर कार्रवाई से पहले ये तौलना चाहती है कि फायदा अंतुले के सहारे एक वोट बैंक को लुभाने में है या फिर आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता के नाम पर अंतुले को हटाने में..जो भी हो, अंतुले का कभी इतना नाम तो न हुआ था, जो अब बदनाम होकर हो रहा है। जिस संसद में उनकी आवाज़ बमुश्किल सुनाई देती थी, वहां अब उन्हीं का नाम जपा जा रहा है। तो वाकई काबिले तारीफ़ हैं वो गीतकार, जिन्होंने लिखा था..जो है नाम वाला..वही तो बदनाम है..तभी तो आज भी हिट है वो गाना।
आपका
परम

Friday, December 19, 2008

..कहां हो तुम?

हमने ज़माने को देखा ही नहीं,
उनकी नज़रे इनायत पाने के लिए..
उन्होंने हमें तन्हा छोड़ दिया,
उसी ज़माने में किस्मत आजमाने के लिए...

जो बिछड़े तो ये सोचा कि बिछड़े हैं
कभी फिर से मिल जाने के लिए...
अब हुआ अहसास कि हम तो बिछड़ गए
ताउम्र बिछड़ जाने के लिए...

जब से जुदा हुए जिये जा रहे हैं हम
रिश्ता-ए-ज़िंदगी निभाने के लिए...
दिल बेताब है अपने प्यार का वही प्यार,
एक बार फिर से पाने के लिए...

उन्हें तो फुर्सत ही नहीं,
हमें भूले से भी याद फरमाने के लिए...
हम ही अकेले रह गए हैं,
वफ़ा-ए-दोस्ती निभाने के लिए...

एक बार तो मिल लो कभी,
कि मिल जाए हमें बहाना मर जाने के लिए..
फिर इत्मीनान से भूल जाना हमें,
किसी और बहाने के लिए...
आपका
परम

Thursday, December 18, 2008

..अंतुले का क्या हो?

हद हो गई, आतंकवाद पर सियासत के ख़िलाफ़ आम लोगों का गुस्सा इतनी जल्दी भूल गए अंतुले साहब..दरअसल वो कहना तो ये चाहते थे कि मुंबई एटीएस चीफ हेमंत करकरे चूंकि मालेगांव धमाकों की तफ्तीश के दौरान हिंदू आतंकवाद को सामने लाने में अहम किरदार निभा रहे थे, लिहाजा उनकी मौत के पीछे पाकिस्तानी आतंकवादियों के अलावा भी किसी का हाथ हो सकता है। साफ शब्दों में वो ये कह रहे थे कि हो सकता है कि करकरे की हत्या तथाकथित हिंदू संगठन ने कराई। अब अंतुले साहब को शहीद करकरे के साथ ही शहादत देने वाले सालस्कर और मुंबई पुलिस के शहीद एसीपी का नाम क्यों नहीं सूझा, ये तो वही जानते होंगे। दरअसल, अंतुले साहब कुंठित हैं। कुंठित कांग्रेस में अपनी अनदेखी से हैं। कुंठित मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने से हैं। वो मज़हबी हवा देकर सियासी आग भड़काना चाहते हैं, ताकि रोटियां सेंक सकें। अब शर्म-लिहाज से उन्हें क्या लेना-देना..ऐसा भी नहीं है कि वो अपनी बात से पूरी तरह पलट रहे हैं। वो तो अड़े हैं, जानते हैं कि पलट गए तो उस गेम का क्या होगा, जिसे सोचकर ये बयान दिया। लेकिन, उनकी पार्टी परेशान है। वो देख चुकी है आतंकवाद पर सियासत करने से हालिया विधानसभा चुनावों में बीजेपी का हाल...वो भांप रही है जनता की नब्ज़। लेकिन, सवाल ये है कि अंतुले जैसे नेताओं का आखिर क्या किया जाए?

Wednesday, December 17, 2008

..मेले में सिमटते गांव

गांव क्या होता है? गांव कैसा होता है? गांव का रहन-सहन कैसा होता है? आप सोच हो रहे होंगे कि क्या अजीब से सवाल हैं..तो अब ज़रा सुनिए ये वाकया..दिल्ली के पास नोएडा के एक नामी स्कूल में हाल ही में एक मेला लगाया गया। थीम था गांव..ज़्यादातर बच्चों को ये नहीं मालूम कि गांव कैसा होता है सो बताना ज़रूरी था। और इस मेले में एक कठपुतली शो भी हुआ ताकि बच्चे ये समझ सकें कि गांवों का जीवन कैसा होता है? वाकई अजीब बात है ना..जिस देश की सत्तर फीसदी आबादी आज भी गांवों में रहती है, उसी देश की नई पौध इस हक़ीक़त से अनजान है कि उसकी जड़ें कहां हैं? चार-पांच साल पहले की बात है, ट्रेन से मैं घर जा रहा था। साथ वाली बर्थ पर एक महिला अपने बेटे-बेटी के साथ जा रही थी। गोरखपुर के पास खिड़की से बाहर देखते हुए अचानक दोनों बच्चे आश्चर्य से चीखे..वो देखो डंडे का पेड़...एक साथ, इत्ते सारे डंडे...हमने बाहर देखा तो गन्ने का खेत था..पूछा तो उनकी मां बोली कि पिछली बार जब दादा-दादी के पास गए थे तो काफी छोटे थे, पहले कभी नहीं देखा। अब सोचता हूं कि बेचारे बच्चे अब तो ट्रेनों में सफ़र के दौरान भी इन खेतों को नहीं देख सकते क्योंकि एसी कोच की खिड़की पर लोग पर्दा भी तो लगा लेते हैं। तभी तो ये अहसास आता है कि इन कोचों में यात्रा कर रहे यात्री स्लीपर वालों से ऊपर के कैटेगरी के हैं। खैर..अपनी ज़मीन से लगातार दूर हो रहे हमलोगों ने अपनी और अपने बच्चों की ज़िंदगी को एक एसी कार के अंदर, एक दो बेडरूम के फ्लैट के अंदर इस कदर कैद कर लिया है कि बाहर की दुनिया की तरफ झांकने का कभी वक्त ही नहीं मिलता। लेकिन, अंदर ही अंदर कुछ कचोटता भी है..निश्चित रूप से कचोटता है तभी तो मल्टीप्लेक्सों में भी वेलकम टू सज्जनपुर जैसी गंवई थीम पर बनी फिल्म हिट हो जाती है। कई बार शहरों की चकाचौंध भरी रोशनी से भी भली गांव में अपने घर की छत पर चांद-तारों की मद्धम रोशनी में गुजारी रात लगती है। ठीक है गांव में गरीबी है, पिछड़ापन है, लेकिन वहीं सीधापन है, अपनापन है। खुद तो इससे महरूम हो ही रहे हैं अपने बच्चों को तो मिट्टी की खुशबू मिलने दीजिए। कभी-कभार ही सही, पिकनिक पर ही सही, उन्हें गांव घुमा लाइए। कम-से-कम उन्हें शहरों में ग्रामीण मेला देखकर तो गांव को समझने पर मजबूर नहीं होने दीजिए।
आपका
परम

Sunday, December 14, 2008

...हो गई ना विदाई!

लो जी, बुश साहब को जाते-जाते विदाई का तोहफ़ा भी मिल गया। अच्छा हुआ, बुरा हुआ..जो हुआ वो होना चाहिए था या नहीं, पत्रकार होने के बावजूद उसे जूते फेंकने चाहिए थे या नहीं..ये सब तो अब बहस का मुद्दा है, लेकिन अमेरिका को ये सबक तो मिल ही गया कि दूसरे देश में दादागीरी का अंज़ाम ऐसा भी हो सकता है। बुश ने सद्दाम को सत्ता से हटा दिया..लोग तब सद्दाम से खफा थे..उसकी प्रतिमा तोड़ी, जूते बरसाए..लेकिन, पांच साल से कुंडली मारकर इराक में जमी अमेरिकी फौज़, अमेरिकी दखलंदाजी, पिट्ठू सरकार और सबसे बढ़कर लगातार होते धमाके ने बुश की इराक नीतियों के खिलाफ जो गुस्सा भरा..उसी का इज़हार था ये गुस्सा...ये अलग बात है कि एक पत्रकार होने के नाते अल बगदादिया के ज़ैदी को ये सब नहीं करना चाहिए था क्योंकि पत्रकार को घुट्टी में ये सबक सिखाई जाती है कि उसे पार्टी नहीं बनना है, निष्पक्ष बने रहना है। लेकिन, गले तक भरा गुबार ने उसके अंदर के इंसान को पत्रकार पर भारी बना दिया। नतीज़ा जो हुआ, वो सबके सामने है। बुश साहब का कहना है कि ये सब लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं...लेकिन ये खिसियानी बिल्ली की बात से ज़्यादा नहीं लगती...
आपका
परम

Saturday, December 13, 2008

..आगे आएं, राह बताएं

क्या है हमारी मंज़िल या क्या हो हमारी मंज़िल? अपनी ज़िंदगी से जुड़े इस सबसे अहम सवाल का जवाब तलाशने का भी हमारे पास वक्त नहीं जबकि जवाब हममें से हर कोई पाना चाहता है। होता अक्सर ये है कि हम खुद को वक्त की दरिया में छोड़ देते हैं कि वो जहां चाहे, किनारा लगा दे। उसी किनारे को मंज़िल भी मान लेते हैं क्योंकि दूसरे विकल्प पर सोचने का या तो वक्त नहीं होता या सोचना चाहते ही नहीं। इस कमज़ोरी या नाकामी को भगवान की मर्जी, किस्मत का लेखा जैसे जुमलों से ढ़क भी लेते हैं। कभी-कभी हम दूसरों को देखकर ये समझते हैं कि वो तो ऊंचे मुकाम पर पहुंच गया, उसने तो मंज़िल हासिल कर ली, लेकिन जब वो भी ये कहता है कि ये वो मंज़िल तो नहीं तो बड़ा अज़ीब सा लगता है। शायद तभी हमें वो ग़ज़ल अपने से जुड़ी महसूस होती है कि हरेक शै को मुकम्मल जहां नहीं मिलता...हाल ही में बैंगलोर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुले दिल से ये कहा कि वो नेता तो accidently बन गए, इच्छा तो टीचर बनने की थी। हम भी कहते हैं कि मैं तो बिज़नेसमैन बनना चाहता था, नौकरी में आ गया...या मैं तो आईटी प्रोफेशनल बनना चाहता था गलती से मार्केटिंग में आ गया...आखिर कहां चूक जाते हैं हम? मंज़िल चुनने में या मंज़िल का राह चुनने में? या मंज़िल और उसकी राह बताने वालों को चुनने में ? भूल सुधारने की गुंजाइश ताउम्र बनी रहती है और सच ये भी है कि मंज़िलें और भी होती हैं, बस सही राह तलाशनी है...जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि वो जिस किसी क्षेत्र में हैं, ज्योतिष में, मीडिया में, व्यवसाय में, सैन्य सेवाओं में, टीचिंग में, आईटी में..कहीं भी अपने अनुभव, अपने विचार, अपने क्षेत्र की अच्छाई-बुराई बताने के लिए थोड़ा वक्त दें..अपने लिए तो हर कोई जीता है, दूसरों की जिंदगी के लिए भी राह दिखाएं। हो सकता है एक-दूसरे के सुझावों से अपनी ज़िंदगी भी बेहतर हो, अपनी मंज़िल भी नज़र आए। बहुत जल्द...मीडिया के बारे में अपने और इस फील्ड से जुड़े साथियों की राय आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। मैं प्रिंट और टीवी, दोनों में काम करता रहा हूं इसलिए उम्मीद है कि मेरे खुद के अनुभव से उन लोगों को फायदा मिल सकता है, जो मीडिया में आना चाहते हैं। थोड़ा सा वक्त चाहूंगा, इसके लिए वक्त निकालने के लिए...
आपका
परम

Friday, December 12, 2008

..नाकामी की बरसी

सात साल पहले आज ही के दिन यानी 13 दिसंबर को ही संसद पर हमला किया गया था। उससे पहले के आतंकवादी हमले या वारदात छुप-छुपाकर, बम प्लांट करके किए जाते थे। लेकिन, पहली बार आतंकवादियों ने खुली चुनौती देते हुए क़हर बरपाने के मंसूबों से संसद परिसर में घुसकर फायरिंग की थी। जवानों ने शहादत देकर आतंकियों को ढ़ेर किया, और उन नेताओं की जान बचाई, जिनकी नाकामियों का सिला एक बार फिर और उसी तरह के हमले में मुंबई को भुगतना पड़ा। दोनों ही बार आतंकवादी पाकिस्तानी थे, दोनों ही बार आतंकियों का सामना बिल्कुल आमने-सामने हुआ, दोनों ही बार जांबाजों को शहादत देनी पड़ी और दोनों ही बार भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सख्त तेवर अपनाए। लेकिन, जो चीज दूसरी बार नहीं होनी चाहिए वो है एक और हमला...पाकिस्तान ने संसद पर हमले के बाद भी आतंकवाद को शह देना जारी रखा, लेकिन हम पड़ोसी से दोस्ती का राग अलापते रहे। भूल गए संसद पर हमले से मिला देश के दिल पर ज़ख्म का दर्द...लेकिन, अब जब जख्मों को फिर से कुरेदा गया है तो नहीं भूलना चाहिए..वैसे किस पर और कैसे यकीन किया जाए। अक्षरधाम, वाराणसी, अहमदाबाद, हैदराबाद, जयपुर, दिल्ली तमाम जगहों पर हुए धमाकों की गूंज और मारे गए लोगों की चीख भी सियासी बयानबाज़ी में दबाई जाती रही है। कोई सिमी पर प्रतिबंध हटाने की वकालत करता है तो कोई वोट के लिए अफजल जैसे आतंकवादी को जब तक हो सके ज़िंदा रखने की कोशिश करता है। कोई आतंकवादी को बाक़ायदा प्लेन में बैठाकर कंधार तक पहुंचाने जाता है तो कोई अपनी बेटी को बचाने के लिए आतंकवादी को छुड़वाता है। और कोई आतंकवादियों को बेकसूर ठहराने और शहादत पर सवाल उठाने से भी बाज़ नहीं आता। हां, शुक्र है इस बार संसद में हुई बहस में सरकार ने चूक मानी है, अगले कदम के ऐलान किए हैं और विपक्ष ने भी हम सब एक हैं का नारा बुलंद किया है। शायद तवा गर्म है, इसलिए कोई उंगली जलाना नहीं चाहता...कुछ दिन बाद चुनाव आते ही कहां का आतंक और कौन सी नीति पर वापस भी लौट सकते हैं आखिर गिरगिट को रंग बदलते वक्त ही कितना लगता है?
आपका
परम

Thursday, December 11, 2008

..कभी वो भी आए वक्त

फिर मैंने उनसे मांगा वक्त और फिर दिल हुआ बेज़ार
उन्होंने कहा फिर कभी, और लंबा हुआ इंतज़ार..
अब करता हूं अफसोस कि क्यों उनसे मांगा वक्त,
बड़े बेवक्त पर इस बार भी वो कर गए इनकार...

गर बस चले इस दिल का तो ये थाम लेता वक्त,
एक वक्त था जब, उनके पास था मेरे लिए भी वक्त
हर शाम का था साथ और कट जाता था वो वक्त,
अब यादों में ही सिमट गया गुजरा सुहाना वक्त..

मेरे लिए अब पास उनके वाकई नहीं है वक्त,
वक्त ने ही तो बदल दिया उनका पुराना वक्त,
पर मानता नहीं है मेरा दिल ये कमबख्त,
और मांग बैठता है उनसे अब भी थोड़ा वक्त...

अब वक्त से है इल्तिजा...मेरा भी आए वक्त,
लौटा दो वही दोस्त, कभी वो भी आए वक्त...

(माफी के साथ चूंकि ये कविता थोड़े से बदलाव के साथ मैंने दीपक नरेश जी के ब्लॉग पर उनके कहने पर लिखी थी..औऱ माफी उनसे भी, जिनके लिए ये कविता लिखी थी..पाठक इससे तो सहमत होंगे ही कि बिना प्रेरणा के कविता लिखी ही नहीं जा सकती..)
आपका
परम

..यूं ही कारवां बनता जाए

मेरी कविता...सैलाब के सामने...की आपलोगों ने जिस तरह से तारीफ की है, मुझे ये भ्रम भी होने लगा है कि मैं कविता भी लिख सकता हूं। यकीन मानिए, गिरिजेश जी को छोड़कर जितने भी लोगों ने इसपर टिप्पणी भेजी है, उनमें से किसी का नाम तक मैं नहीं जानता था। पिछले तीन-चार दिन में दिगंबर नासवा जी, रचना गौड़ जी, शमा जी और संगीता पुरी जी ने मुझे बधाई दी है। हौसला बढ़ाने के लिए आप सबका धन्यवाद। और शुक्रिया प्रमोद पांडेय जी का भी, जिन्होंने मेरी छोटी सी कहानी पर अपनी टिप्पणी भेजी है। यकीन मानिए, इस साथ की उम्मीद और इतनी जल्दी, मैंने बिल्कुल नहीं की थी। लेकिन, ये तो हक़ीक़त है। शुक्रिया राजीव जी, आपकी टिप्स पर अमल करते हुए मैंने वर्ड वेरिफिकेशन कोड हटा दिया है। डॉक्टर चंद्रजीत सिंह उर्फ अवतार मेहर बाबा, सुरेश चिपलूनकर जी, अशोक मधूप जी और प्रकाश बादल जी की तारीफों का भी तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं। एक अनजाने आदमी के लिए साथ का हाथ बढ़ाकर मेरा आप सबने मनोबल बढ़ाया है। आपने सही पहचाना, ब्लॉग की दुनिया मेरे लिए बिल्कुल नई है और आपके सहयोग की ज़रूरत तो कदम-कदम पर पड़नी ही है। नए साथियों को बता दें कि गिरिजेश मिश्र प्रिंट में रिपोर्टिंग से लेकर ज़ी न्यूज़ और आज तक जैसे न्यूज़ चैनल में आउटपुट के स्तंभ बने हुए हैं। खालिस गोरखपुरी मिजाज के हैं। लखनवी अंदाज़ में पान चबाते हैं और एक पान खत्म होते-होते आधे घंटे के शो की स्क्रिप्ट लिख मारते हैं। सलिल खली को भी मुझ नाचीज को याद करने के लिए धन्यवाद...
आपका
परम

Wednesday, December 10, 2008

..मिसाल या मसाला?

ईद के दिन फिज़ा में चांद दिखा...मुबारक। चांद भी खिला हुआ है और फिज़ा भी महक रही है...मुबारक़। नई ज़िंदगी की शुरुआत पर फिज़ा जी को ख़ास तौर पर मुबारकबाद देनी चाहिए और ये दुआ भी कि उनके चांद को कोई दूसरा चांद नज़र न आए क्योंकि उन्होंने उसे अपना बनाया है, जो अपनी पत्नी और बच्चों का भी अपना नहीं बन पाया। ऐसे में उनकी आगे की ज़िंदगी में शायद दुआओं के सहारे की ज़्यादा ज़रूरत पड़े। आखिर उन्होंने ये मिसाल भी तो साबित की है कि प्यार झुकता नहीं, दिल दीवाना होता है वगैरह-वगैरह। और ये मिसाल आगे भी तो साबित हो सकती है, क्योंकि दिल तो आखिर दिल है और ये भी सच है कि जो मजहब उन्होंने अपने इश्क को अंजाम देने के मकसद से अपनाया है, उसमें तो अभी दिल के अरमान को अंजाम तक पहुंचाने के और मुकाम भी बाक़ी हैं। किसी की निजी ज़िंदगी और निजी फ़ैसलों पर किसी गैर को टिप्पणी करने का हक़ नहीं बनता, लेकिन चर्चा हर जगह छिड़ी है कि उन्होंने जो किया, वो ठीक किया या गलत किया..बहस धर्मगुरुओं में भी छिड़ी है, जो हरियाणा के बर्खास्त उपमुख्यमंत्री चंद्रमोहन के धर्म बदल कर चांद मोहम्मद बनने और प्रेमिका अनुराधा यानी फिज़ा से दूसरी शादी करने को जायज या नाजायज ठहरा रहे हैं। शुक्र है चांद की पहली पत्नी एक रसूखदार और सम्पन्न परिवार की हैं वर्ना घर चलाने और बच्चों का भविष्य बनाने की दुश्वारियां उनकी परेशानी और बढ़ा देतीं। ये अलग बात है कि अगर बड़े नाम नहीं जुड़े होते तब शायद हम इस ख़बर या बहस से भी बच जाते। जो भी हो ब्लॉगर्स बंधुओं और पाठकों आपका क्या मानना है?
आपका
परम

Tuesday, December 9, 2008

..अजनबी से अपनापन!

कॉफी की चुस्की लेते-लेते मैंने अपने सिर को हल्का सा झटका दिया। शाम से जो ख्याल लगातार मेरे जेहन में आ रहे थे उसे शायद भगाना चाहती थी। सिर झटकने से चेहरे पर एक-दो लटें फैल गई। अचानक याद आया..वो अक्सर मेरे बालों को देखकर कुछ न कुछ कहा करता था। उफ्फ..फिर उसी की यादें? आखिर क्यों? अचानक घड़ी पर नज़र गई, ये ड्राइवर भी ना..जब बुलाओ, जवाब देगा आप चलो मैडम बस पांच मिनट में आता हूं और कभी आधा-एक घंटे से पहले उसका पांच मिनट नहीं होता। दिसंबर की सर्दी और ऊपर से हवा चल रही थी..वो कहा करता था कि ऐसे मौसम में जब मेरी आंखें सुर्ख हो जाती हैं तो मैं और भी खूबसूरत दिखती हूं। एक हंसी सी आई..किसी की जान जाए और किसी को शायरी सूझती है, लेकिन वो आखिर ऐसा करता क्यूं था..ये मैं कभी न समझ पाई। उसने खुद ही बताया था कि उसकी ख्वाहिश बस मुझे खुश देखना है, लेकिन क्यों..आखिर मेरी खुशी से किसी अजनबी को क्या लेना-देना..हां.. अजनबी ही तो था वो..मुझे पता नहीं क्यों अपना मानता था..मेरे चेहरे को देखकर दिल का हाल बता देता था..मैं क्यों तनाव में हूं, मैं क्यों परेशान हूं, मेरा चेहरा क्यों सूजा हुआ है..मेरी आंखें क्यों नम हैं..मैं क्यों नहीं दिखी..सवालों का सिलसिला कभी ख़त्म ही नहीं होता था..कई बार दुत्कारा, फटकारा , नजरअंदाज किया पर पता नहीं किस मिट्टी का बना था, सुधरता ही नहीं था। मैंने कभी उसकी फिक्र नहीं की..कभी ये नहीं जाना कि वो क्यों उदास है..वो कैसा है? लेकिन, अब ना जाने क्यों उस अजनबी की कुछ ज़्यादा ही याद आ रही है। अचानक आवाज़ आई...मैडम चलना नहीं है क्या? जी में आया कस के डांट लगाऊं..खुद अब जाकर आया है और पूछ रहा है कि चलना नहीं है क्या..खैर, गाड़ी चल पड़ी थी..फिर ख्याल आया..वो होता तो एक एसएमएस इसी वक्त आता..बाय...कई बार उसके एसएमएस का जवाब देना मुश्किल हो जाता था..क्या लिखूं, रोज़-रोज वही बात, ठीक हूं..सोच के कुछ नहीं लिखती थी। ऐसा कभी नहीं होता था, जब उसका एसएमएस या मेल नहीं आता था..अचानक याद आया..पिछले कई दिनों से उसने कुछ भी नहीं भेजा..जाने दो..अच्छा ही हुआ, पीछा छूटा..लेकिन, क्यों नहीं भेजा? ऐसा तो पहले नहीं होता था..हां, आखिरी बार उसने ही मेल किया था, मैंने जवाब नहीं दिया था..हमेशा की तरह..वो नाराज़ तो नहीं हो गया ना..वैसे हो भी जाए तो मेरा क्या? घर आने वाला था, दिल में कुछ गर्म शीशे सा उतरता महसूस हो रहा था..कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया? ख्याल आया..ये मुझे क्या हो रहा है..अजनबी से अपनापन? सोचा उसे फोन करूंगी..हथेली पर्स में मोबाइल तलाश रही थी कि ब्रेक लगा..मैडम घर आ गया..चलो कल कर लूंगी फोन..आराम से..कुछ नहीं हुआ होगा, होगा तो मुझे ज़रूर बताएगा। घर में घुसते ही ठीक सामने रखे आईने में अक्स उभरा..क़रीब जाकर देखा तो आंखें सुर्ख नज़र आईं...तभी पीछे से एक और अक्स उभरा..और आवाज़ आई..आज इतनी देर कैसे लगा दी? ख्याल गुम होते चले गए..ये अजनबी न था..मेरा अपना था..लेकिन, दिल मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था..वो अजनबी क्या मेरा अपना नहीं?
आपका
परम

Monday, December 8, 2008

..सैलाब के सामने

बड़े आराम से मैं किनारे-किनारे चला जा रहा था,
तभी देखा सैलाब मेरी ओर ही चला आ रहा था,
मन ने कहा-चल भाग ले..कि तेरे चाहने वालों को है ज़रूरत तेरी,
मैं न भागा क्योंकि सैलाब में वो जाना-पहचाना चेहरा नज़र आ रहा था..

पास आकर मेरे सामने एक पल के लिए ठिठका पानी,
आई आवाज़..मुझसे ही दिल लगा बैठे..परम अज्ञानी..
मैंने पूछा-हम जैसे इंसान सिर्फ ख्वाब ही तो बनाते हैं,
और उन्हीं ख्वाबों को तुम क्यों साथ बहा ले जाते हो?
आई आवाज़..बस यही बताने को कि मत बना ख्वाब,
क्योंकि यूं ही और अक्सर ये ख्वाब टूट जाते हैं..

मैंने कहा-ख्वाब के साथ इंसान भी टूट जाते हैं,
मुझे क्यों बख्शते हो, क्यों नहीं साथ ले जाते हो?
आई आवाज़..ज़िंदगी साथ जाती है मेरे, बन लाश लौट आती है..
तू तो अब यूं भी एक लाश है..जा मौत तूझे ज़िंदगी लौटाती है

न जाने फिर सैलाब के पीछे-पीछे कब तलक चला जा रहा था..
कभी तो फिर से देखूं उसे, जिसमें वो चेहरा नज़र आ रहा था
परम

..जनादेश को समझें

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए और राजस्थान और मिजोरम को छोड़ दें तो बाक़ी तीनों मुख्यमंत्री नॉट आउट ही रहे। ये जनादेश कई साफ संकेत दे रहे हैं। पहला ये कि बढ़िया काम करो तो जनता महज बदलाव के लिए अब बदलाव के मूड में नहीं दिखती। दूसरा ये कि जनता अब राष्ट्रीय मुद्दों पर शायद संसदीय चुनाव के लिए ही सोचना चाहती है और राज्यों के चुनाव में उसे राज्यों से जुड़े मुद्दों और नीतियों से ही सरोकार है। शायद यही वजह है कि दिल्ली और राजस्थान में आतंकवाद, महंगाई, मंदी जैसे मुद्दे उठाना बीजेपी पर ही भारी पड़ गए। तीसरा ये भी कि नेताओं के बहकावे में अब लोग नहीं आ रहे। दिल्ली की ओखला सीट से कांग्रेस का जीतना इसका सबूत है। यहां हुए बाटला हाउस एनकाउंटर को समाजवादी पार्टी ने भुनाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वोटरों ने उसे पांचवें नंबर पर धकेल दिया। चौथा ये कि विकल्प मजबूत होना चाहिए क्योंकि सिर्फ पार्टी के नाम पर लोग संतुष्ट नहीं हो रहे। और पांचवां ये कि भले ही अब बीएसपी यूपी से निकलकर दूसरे राज्यों में भी जड़ जमा रही है, लेकिन लोग त्रिशंकु जनादेश की बजाय साफ फैसला कर पसंदगी-नापसंदगी जाहिर करने के गुर सीख रहे हैं। खैर, अगली लड़ाई तो अगले साल होगी..क्योंकि मुद्दे भी अलग होंगे और मतदाताओं की सोच भी...तब तक सेमीफाइनल के नतीज़ों पर राजनीतिक दलों को मंथन करने और अगली रणनीति तय करने का पूरा मौक़ा है।
परम

Friday, December 5, 2008

..इस बार तो करनी भी दिखी!

मुंबई पर हुए सबसे बड़े हमले के बाद सरकार कथनी के साथ-साथ करनी पर भी पूरा ज़ोर दे रही है। पुराने वाले गृह मंत्री की विदाई कर दी और विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री दोनों पूरी फिक्र और जोश के साथ तीन दिन तक काम में जुटे रहे...अब ये मत पूछ बैठिएगा कि क्या प्रणब दा विदेशी नेताओं के साथ कूटनीतिक मोर्चे पर डटे हैं या एंटनी साहब आगे से ऐसे हमलों को रोकने के रक्षा उपायों में जुटे हैं...क्योंकि जवाब जानकर फिर सोच में पड़ जाएंगे कि पार्टी बड़ी या देश? आगे के चुनाव का ज़्यादा ख्याल या देश की सुरक्षा का ? हम भी नहीं चाहते कि रोजमर्रा की उलझनों में पहले ही से परेशान आप लोगों को इन सवालों में और उलझाएं... लेकिन, सवाल तो फिर भी उठता ही है कि ऐसे अहम मौके पर देश के ये दो अहम केंद्रीय मंत्री कैसे अपना पूरा वक्त महज एक मुख्यमंत्री को चुनने की कवायद में लगा रहे थे? उस कवायद में, जिसका अंत अंतत: आलाकमान को ही करना था..और नारायण राणे साहब को भी तो देखिए..सियासत में पिछड़ने का गम शायद उनकी मातृभूमि पर हमले से भी ज़्यादा भारी पड़ रहा है..
आपका
परम

..वो तो बहार है..

जब तक न देख लूं उन्हें, होती नहीं सुबह
जब तक न झटके जुल्फ वो, होती नहीं है शाम
जब तक न मुस्कुराए वो, खिलते नहीं हैं फूल
इतना हसीं है वो कि मैं, एक पल न पाऊं भूल...

जब वक्त की गर्दिश में, टूट कर मैं बिखर जाऊं
हालात की मझधार में, फंस कर के मैं रह जाऊं
है आरजू मेरी कि उन्हें आस-पास पाऊं
उनकी तलाश में ही कभी इस जान से जाऊं..

गर उन तलक पहुंचे बला तो,ढाल बन जाऊं
वो खुश रहें, महफूज रहें यही गीत मैं गाऊं
हर रीत तोड़कर कोई नई प्रीत बन जाऊं
खुशनसीब हूंगा...गर उनके लिए इक दिन मैं गुज़र जाऊं
परम

Thursday, December 4, 2008

शुक्रिया...

जिस तरह से शुरुआत करते ही आप सबकी शुभकामनाएं मिल रही हैं, निश्चित तौर पर हम एक बेहतर अंज़ाम की ओर जाएंगे। साथ ही एक बहस की भी शुरुआत हो गई है। मुंबई हमले के बाद उमड़ी भीड़ को वरिष्ठ पत्रकार अतुल सिन्हा जी ने तात्कालिक प्रतिक्रिया बताकर जनांदोलन मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने आतंकवादियों के मकसद के पूरा होने को एक नए एंगल से देखा है। बताने की ज़रूरत नहीं कि टीवीआई, आजतक, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी जैसे चैनलों में मंज चुके अतुल जी की बात में दम है। वहीं युवा प्रोड्यूसर धीरज जी ने जनांदोलन भटकने की आशंका तो जताई है, लेकिन उन्हें इस पर भी शक है कि भविष्य का नेतृत्व भी ईमानदार रहेगा। सत्ता और सरकार पर नाराज़गी तो अरुण जी ने भी जताई है, लेकिन वो भी जनता की प्रतिक्रिया को तात्कालिक ही मानते हैं। आजतक में कार्यरत नीरज जी ने अपनों से बढ़ती दूरी का दर्द बयां करते हुए दोस्तों की महफिल जमने की उम्मीद जताकर दिल में नया जोश जगाया है। हां, कला और विज्ञान दोनों में एक जैसी पकड़ रखने वाले शंभुनाथ जी का ख़ासतौर पर शुक्रिया..शंभु जी को जो नहीं जानते, उन्हें ये बता दूं कि ये हिंदी के शायद इकलौते पत्रकार हैं, जिनके चंद्रयान पर किए गए स्पेशल शो की सीधे इसरो ने तारीफ की है और टेप भी मंगाए हैं और वो कवि भी हैं। उन्होंने अभी भी पत्रकार बिरादरी की संवेदना बरकरार रहने का भरोसा दिलाया है। जेएनयू की विशिष्ट राजनीति और शिक्षा से निकलकर मीडिया में हाथ आजमा रहे निखिल भाई का भी उत्साह बढ़ाने के लिए शुक्रिया...अनिल दीक्षित जी ने वक्त की कमी की वजह से अभी छोटा संदेश भेजा है, बाद में कुछ ख़ास टिप्पणी का वादा किया है। मेरी कोशिश यही रहेगी कि आपकी उम्मीदों पर खरा उतरूं और उम्मीद यही कि आपकी ओर से भी मेरा मनोबल बढ़ाने की कोशिश जारी रहेगी
आपका
परम

Wednesday, December 3, 2008

कोई राह तो दिखाए...

मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद पहली बार ऐसा लग रहा है कि देश जाग उठा है। लोगों के गुस्से का गुबार धीरे-धीरे जनांदोलन की शक्ल लेता जा रहा है। लेकिन, इस गुस्से को सही दिशा मिलनी ज़रूरी है वर्ना ये भटक सकता है। इस तरह के आंदोलन खुद-ब-खुद और तेज़ी से उठ खड़े होते हैं, लेकिन मंजिल तक पहुंचने की राह पता न होने की वजह से उतनी ही ज़ल्दी दम भी तोड़ देते हैं। लोग सियासी दलों और नेताओं को अपने पास फटकने नहीं देना चाह रहे, उनकी नाकामी जनता की नज़र में नफरत और हिकारत में बदल गई है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर आगे चलकर इस आंदोलन का रुख क्या होगा? क्या इसकी अगुवाई करने वाला कोई मिलेगा या यूं ही वक्त गुज़रने के साथ ये भी गुज़र जाएगा? ज़रा सोचिए कि अगर इस गुस्से, इस आंदोलन को सही दिशा मिल जाए तो देश की तस्वीर बदलने में क्या ज़्यादा वक्त लगेगा? लोगों के दिल में कुछ कर गुज़रने का ज़ज्बा हिलोरें मार रहा है, लेकिन क्या करना है, ये बताने वाला नज़र नहीं आ रहा.....कुछ कीजिए...इसे सही राह दिखाइए...इससे पहले कि नींद से जागे शेर फिर सो जाएं, इन्हें राह दिखाइए
परम

Tuesday, December 2, 2008

LET'S BEGIN

हर दिन न जाने कितनी स्क्रिप्ट लिखता रहा हूं, मसले कभी गंभीर तो कभी ड्रामेबाजी से भरपूर..मीडिया में काम के भारी दबाव के बीच पिस रहे अपने ज़्यादातर साथियों की तरह मैं भी कब मशीन बन गया, पता ही नहीं चला। अहसास गुम होते गए...दुर्घटना की ख़बर आते ही ये पूछना कि कितने मरे ? धमाके की ख़बर आते ही ये जानने की बेचैनी कि सीरीयल ब्लास्ट है या नहीं ? लाशों के ढ़ेर से ख़बरें तलाशते-तलाशते ज़िंदा लाश में तब्दील होते पत्रकारों की प्रजाति का ये सदस्य वक्त की गर्दिश में न जाने कब का गुम हो जाता, अगर उसे नज़र नहीं आता एक चेहरा...जी हां, अपने ब्लॉग के जरिये मैं अपनी ज़िंदगी की एक नई शुरुआत कर रहा हूं और इस मौक़े पर उससे ज़्यादा मुझे कौन याद आ सकता है, जिसने मुझे जाने-अनजाने जीना सिखाया। इस मौके पर सबसे पहले अपनी प्रेरणा, अपनी दोस्त को शुक्रिया कहना चाहूंगा। इस ब्लॉग के जरिये हम यानी मैं और आप मिलकर उस वाणी को आकार देने की कोशिश करेंगे, जो हमारे दिलों में ही दम तोड़ देती है। हममें से हर कोई एक कवि है, एक कहानीकार है। हर किसी के दिल में है एक अंगार, ज्वलंत विचार जिसे दुनिया के सामने लाना है...इस कसक को दम नहीं तोड़ने देना है क्योंकि इसमें छिपा हो सकता है समाज को बदलने का माद्दा...तो आप सबसे यही आग्रह है कि इस छोटी सी शुरूआत को बड़ा आकार दें...अपना प्यार दें...सहयोग दें और कुछ नहीं तो विचार दें...सबसे पहले तो इस ब्लॉग की शक्ल कैसी हो, इसी पर आपकी राय का इंतज़ार है।

आपका

परम