Saturday, December 13, 2008

..आगे आएं, राह बताएं

क्या है हमारी मंज़िल या क्या हो हमारी मंज़िल? अपनी ज़िंदगी से जुड़े इस सबसे अहम सवाल का जवाब तलाशने का भी हमारे पास वक्त नहीं जबकि जवाब हममें से हर कोई पाना चाहता है। होता अक्सर ये है कि हम खुद को वक्त की दरिया में छोड़ देते हैं कि वो जहां चाहे, किनारा लगा दे। उसी किनारे को मंज़िल भी मान लेते हैं क्योंकि दूसरे विकल्प पर सोचने का या तो वक्त नहीं होता या सोचना चाहते ही नहीं। इस कमज़ोरी या नाकामी को भगवान की मर्जी, किस्मत का लेखा जैसे जुमलों से ढ़क भी लेते हैं। कभी-कभी हम दूसरों को देखकर ये समझते हैं कि वो तो ऊंचे मुकाम पर पहुंच गया, उसने तो मंज़िल हासिल कर ली, लेकिन जब वो भी ये कहता है कि ये वो मंज़िल तो नहीं तो बड़ा अज़ीब सा लगता है। शायद तभी हमें वो ग़ज़ल अपने से जुड़ी महसूस होती है कि हरेक शै को मुकम्मल जहां नहीं मिलता...हाल ही में बैंगलोर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुले दिल से ये कहा कि वो नेता तो accidently बन गए, इच्छा तो टीचर बनने की थी। हम भी कहते हैं कि मैं तो बिज़नेसमैन बनना चाहता था, नौकरी में आ गया...या मैं तो आईटी प्रोफेशनल बनना चाहता था गलती से मार्केटिंग में आ गया...आखिर कहां चूक जाते हैं हम? मंज़िल चुनने में या मंज़िल का राह चुनने में? या मंज़िल और उसकी राह बताने वालों को चुनने में ? भूल सुधारने की गुंजाइश ताउम्र बनी रहती है और सच ये भी है कि मंज़िलें और भी होती हैं, बस सही राह तलाशनी है...जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि वो जिस किसी क्षेत्र में हैं, ज्योतिष में, मीडिया में, व्यवसाय में, सैन्य सेवाओं में, टीचिंग में, आईटी में..कहीं भी अपने अनुभव, अपने विचार, अपने क्षेत्र की अच्छाई-बुराई बताने के लिए थोड़ा वक्त दें..अपने लिए तो हर कोई जीता है, दूसरों की जिंदगी के लिए भी राह दिखाएं। हो सकता है एक-दूसरे के सुझावों से अपनी ज़िंदगी भी बेहतर हो, अपनी मंज़िल भी नज़र आए। बहुत जल्द...मीडिया के बारे में अपने और इस फील्ड से जुड़े साथियों की राय आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। मैं प्रिंट और टीवी, दोनों में काम करता रहा हूं इसलिए उम्मीद है कि मेरे खुद के अनुभव से उन लोगों को फायदा मिल सकता है, जो मीडिया में आना चाहते हैं। थोड़ा सा वक्त चाहूंगा, इसके लिए वक्त निकालने के लिए...
आपका
परम

2 comments:

शंभुनाथ said...

परम जी नमस्कार,
आपने बहुत हद तक ठीक ही कहा है। लेकिन कई बार ठान लेने के बाद फल मिलना भी निश्चित हो जाता है। ऐसा मेरे साथ हो चुका है। दिवानगी की वजह से सरकारी नौकरी को लात मारी। अखबार में काम शुरु किया। लगा कुछ कमी है। जाकर जामिया मिल्लिया जाकर एम ए मास कम्युनिकोशन में एडमिशन ले लिया। ये दौर था 1996 का। प्रोफेशनल जीवन से वापस पढ़ाई करने जाना थोड़ा मुश्किल फैसला जरुर था,दो साल पढ़ाई की...दौर कुछ खराब आ गया...नौकरी मिलना मुश्किल ही नहीं एक बार तो लगने लगा कि अब नौकरी मिलना नामुमकिन है। लगने लगा मुश्किल दौर शुरु हो गया,मेरे छोटे भाई गौरी शंकर ने हिम्मत बंधाई...
जो मैं चाहता था,लग गया उसके पीछे...
अब मैं जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि उस वक्त यदि मुझे कोई संबल नहीं मिला होता तो शायद मैं टूट सकता था। "डूबते को तिनके का सहारा" ये कहावत मुझ पर पूरी तरह लागू होती है। लेकिन इच्छा शक्ति भी अपना काम करती है।

कई बार मन का डर समझौता करने पर मजबूर करता तो है लेकिन ठान लेने पर मुश्किल आसान हो जाती है। यहां पर एक फिल्मी गाने या ग़जल की लाइने याद आती हैं-

"मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए........."

आपका शंभु नाथ

Girijesh Mishra said...

परमेंद्र जी, संकट या सवाल राह से भटकने का नहीं है। ग़लत मंज़िल पर पहुंचने का बहाना वही लोग बहाते हैं, जिनमें धारा के खिलाफ़ तैरने की हिम्मत नहीं थी..। बस बहाव के साथ बहते रहे। फिर जहां पहुंच गए, वहीं ठीहा बनकर पड़े रहे। कई लोग तो ऐसे भी मिल जाएंगे, जो शुरू-शुरू में अनचाही मंज़िल पर ही मौज़ मनाते रहे...और जब मन भर गया, तो ये कहते फिर रहे हैं कि मैं ये नहीं चाहता था, मैं तो वो चाहता था..। वो क्या है कि ये इंसान की फितरत है..। नया जूता बेनाप हो, तो भी पहनने का मन करता है..। लगता है कि कुछ दिन पहनेंगे, तो खुद ब खुद साइज़ में फिट हो जाएगा। तकलीफ़ तभी होती है, जब मन मुताबिक नतीजा नहीं मिलता। जूता, पैर काटना बंद नहीं करता, तभी लगता है कि गलत जगह टांग फंसा ली..। दिक्कत सिर्फ इतनी है कि ऐसी गलती करने (जिसे वो मानते हैं बहुत बाद में)वालों की तादाद बहुत ज़्यादा है..। नेता को लगता है कि मास्टर बनता तो बेहतर था। मास्टर जी लोग नेतागिरी के मौके तलाशते हैं। जो पत्रकार बन गया, उसे नौकरशाह ना बन पाने का मलाल है। जो नौकरशाह है, उसे लगता है कि किसी मल्टीनेशनल में होते तो ज़्यादा मौज़ थी..। अखबार वाले को टीवी की नौकरी भली लगती है और टीवी वालों को लगता है कि कहां आ फंसे बाइट-शॉट के चक्कर में..। अरसे से यही चल रहा है और मुझे नहीं लगता कि आने वाले बरसों में भी पराए सुख का सपना देखने की आदत में कोई बदलाव आने वाला..। इसलिए चलने दीजिए, क्योंकि मनमोहन जी हों या कोई और, ग़लत मंज़िल पर पहुंचने की बातें करते रहेंगे..। बस बातें, अपनी ग़लती सुधारने की कोशिश उनके बस की नहीं..।
गिरिजेश मिश्र