Tuesday, December 9, 2008

..अजनबी से अपनापन!

कॉफी की चुस्की लेते-लेते मैंने अपने सिर को हल्का सा झटका दिया। शाम से जो ख्याल लगातार मेरे जेहन में आ रहे थे उसे शायद भगाना चाहती थी। सिर झटकने से चेहरे पर एक-दो लटें फैल गई। अचानक याद आया..वो अक्सर मेरे बालों को देखकर कुछ न कुछ कहा करता था। उफ्फ..फिर उसी की यादें? आखिर क्यों? अचानक घड़ी पर नज़र गई, ये ड्राइवर भी ना..जब बुलाओ, जवाब देगा आप चलो मैडम बस पांच मिनट में आता हूं और कभी आधा-एक घंटे से पहले उसका पांच मिनट नहीं होता। दिसंबर की सर्दी और ऊपर से हवा चल रही थी..वो कहा करता था कि ऐसे मौसम में जब मेरी आंखें सुर्ख हो जाती हैं तो मैं और भी खूबसूरत दिखती हूं। एक हंसी सी आई..किसी की जान जाए और किसी को शायरी सूझती है, लेकिन वो आखिर ऐसा करता क्यूं था..ये मैं कभी न समझ पाई। उसने खुद ही बताया था कि उसकी ख्वाहिश बस मुझे खुश देखना है, लेकिन क्यों..आखिर मेरी खुशी से किसी अजनबी को क्या लेना-देना..हां.. अजनबी ही तो था वो..मुझे पता नहीं क्यों अपना मानता था..मेरे चेहरे को देखकर दिल का हाल बता देता था..मैं क्यों तनाव में हूं, मैं क्यों परेशान हूं, मेरा चेहरा क्यों सूजा हुआ है..मेरी आंखें क्यों नम हैं..मैं क्यों नहीं दिखी..सवालों का सिलसिला कभी ख़त्म ही नहीं होता था..कई बार दुत्कारा, फटकारा , नजरअंदाज किया पर पता नहीं किस मिट्टी का बना था, सुधरता ही नहीं था। मैंने कभी उसकी फिक्र नहीं की..कभी ये नहीं जाना कि वो क्यों उदास है..वो कैसा है? लेकिन, अब ना जाने क्यों उस अजनबी की कुछ ज़्यादा ही याद आ रही है। अचानक आवाज़ आई...मैडम चलना नहीं है क्या? जी में आया कस के डांट लगाऊं..खुद अब जाकर आया है और पूछ रहा है कि चलना नहीं है क्या..खैर, गाड़ी चल पड़ी थी..फिर ख्याल आया..वो होता तो एक एसएमएस इसी वक्त आता..बाय...कई बार उसके एसएमएस का जवाब देना मुश्किल हो जाता था..क्या लिखूं, रोज़-रोज वही बात, ठीक हूं..सोच के कुछ नहीं लिखती थी। ऐसा कभी नहीं होता था, जब उसका एसएमएस या मेल नहीं आता था..अचानक याद आया..पिछले कई दिनों से उसने कुछ भी नहीं भेजा..जाने दो..अच्छा ही हुआ, पीछा छूटा..लेकिन, क्यों नहीं भेजा? ऐसा तो पहले नहीं होता था..हां, आखिरी बार उसने ही मेल किया था, मैंने जवाब नहीं दिया था..हमेशा की तरह..वो नाराज़ तो नहीं हो गया ना..वैसे हो भी जाए तो मेरा क्या? घर आने वाला था, दिल में कुछ गर्म शीशे सा उतरता महसूस हो रहा था..कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया? ख्याल आया..ये मुझे क्या हो रहा है..अजनबी से अपनापन? सोचा उसे फोन करूंगी..हथेली पर्स में मोबाइल तलाश रही थी कि ब्रेक लगा..मैडम घर आ गया..चलो कल कर लूंगी फोन..आराम से..कुछ नहीं हुआ होगा, होगा तो मुझे ज़रूर बताएगा। घर में घुसते ही ठीक सामने रखे आईने में अक्स उभरा..क़रीब जाकर देखा तो आंखें सुर्ख नज़र आईं...तभी पीछे से एक और अक्स उभरा..और आवाज़ आई..आज इतनी देर कैसे लगा दी? ख्याल गुम होते चले गए..ये अजनबी न था..मेरा अपना था..लेकिन, दिल मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था..वो अजनबी क्या मेरा अपना नहीं?
आपका
परम

1 comment:

प्रमोद... बातें कुछ अनकहीं सी.. said...

बहुत बढ़िया सर... लाजवाब.. वाकई मजा आ गया.. आज नाईट में आपकी वेबसाईट देखी.. काफी अच्छा लगा... कई रोचक और मजेदार बातें पढ़ने को मिली... मेरे ख्याल से बिजी लाइफ में लोगों से इस तरह से संवाद करने का एक बेहतर माध्यम आपने खोज निकाला है... एक बार फिर आपको बहुत बधाई
प्रमोद पाण्डेय, आजतक