Wednesday, December 24, 2008

..लोकतंत्र में गुंडातंत्र!

बेचारे पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर को क्या पता था कि सत्ताधारी पार्टी के विधायक को पैसा न देने पर मिलेगी सज़ा-ए-मौत..मंजूनाथ का हश्र शायद भूल गए होंगे और जान गंवा बैठे। ख़ैर विधायक जी तो गिरफ्तार हो चुके हैं और ज़्यादा उम्मीद भी इसी की है कि राजनीतिक साज़िश का रोना रोकर और लीपापोती कराकर रिहा भी हो जाएंगे। वैसे भी ताकत के सामने कमज़ोर टिकते कहां हैं? अब देखिए न..दो-तीन दिन पहले दिल्ली के अंतरराज्यीय बस अड्डा से नोएडा आने वाली ब्लूलाइन बस के स्टाफ ने एक मूक-बधिर छात्र को जमकर धुन डाला। बेचारा छात्र हर दिन गुड़गांव से बस अड्डा और फिर वहां से बस बदलकर नोएडा आता है ताकि क्लास कर सके। सरकार की ओर से पास मिला हुआ है, लेकिन बस वाले ने एक ना सुनी। साथ में दो-तीन मूक-बधिर छात्राएं भी थीं, जिन्होंने बस से उतरकर शिक्षक को फोन पर एसएमएस किया। इसके बाद घायल पीड़ित छात्र, जिसे बस वालों ने अगले स्टॉप पर उतार दिया था, को अस्पताल ले जाया गया। सवाल ये है कि ये छात्र और उसके साथी तो बोल नहीं सकते थे, लेकिन बस के बाक़ी यात्री तो मूक-बधिर नहीं थे..उन्होंने भी सबकुछ देखने के बावजूद कोई विरोध नहीं किया। इसे कहते हैं ताकत का बोलबाला और कमज़ोर की बोलती बंद। वैसे यूपी सरकार ने भी मारे गए इंजीनियर की पत्नी को फौरन पांच लाख रुपये मुआवज़ा और सरकारी नौकरी का लॉलीपॉप थमाकर बोलती बंद कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब बेचारी का पति तो वैसे भी वापस नहीं आने वाला, तो भागते भूत की लंगोट ही भली..सच में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में गुंडातंत्र का इस कदर हावी होना शर्मिंदा करता है, लेकिन हम सब यही कहना पसंद करते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती हैं।
आपका
परम

2 comments:

Unknown said...

सिर्फ़ गुंडातंत्र न कहें, सरकारी गुंडातंत्र कहें.

मुझे लगता है की यह एक भक्त की अपनी आराध्य देवी के प्रति निष्ठा है, जिस के अंतर्गत उस ने देवी के जन्मदिन पर उसके चरणों में नरबलि दी.

Girijesh Mishra said...

नेताओं, अभियंताओं और ठेकेदारों के गठजोड़ ने खासकर उत्तर प्रदेश में जो तंत्र खड़ा कर रखा है, उसमें मनोज गुप्ता जैसे लोगों की बलि चढ़ती ही रहेगी। सवाल किसी एक एमएलए के रंगदारी वसूलने या फिर किसी एक अभियंता की हत्या का नहीं है। सवाल उस सिस्टम का है, जिसे लालची ठेकेदारों और भ्रष्ट मशीनरी ने पैदा किया और सिरे पनाह देने की कीमत वसूलने के लिए नेता का चोला ओढ़े गुंडे आ धमके..। मनोज गुप्ता की दर्दनाक हत्या की ख़बर मिली, तो मुझे कुछ साल पहले की वो घटना याद आ गई, जब यूपी के इंजीनियर एसोसिएशन ने तबके पीडब्ल्यूडी मंत्री पर उगाही का आरोप लगाया था..। सिर्फ ज़ुबानी नहीं, बल्कि बाकायदा चिट्ठी लिखकर। हुआ क्या? मंत्री जी सदन में रोते रहे और नेता दलगत राजनीति भूलकर उनके आंसू पोंछने में जुट गए। जांच का तमाशा भी हुआ, लेकिन क्या किसी को याद है कि उस जांच का नतीजा क्या निकला? क्या किसी ने ईमानदारी से ये पता लगाने की कोशिश की कि इंजीनियर एसोसिएशन ने मंत्री पर इतना संगीन इल्ज़ाम क्यों लगाया? यूपी में पीडब्ल्यूडी के कामकाज की मामूली समझ रखने वाले को भी मालूम है कि यहां वर्क ऑर्डर के नाम पर कैसा खेल चलता है? दफ्तर में कदम रखने वाले छोटे से छोटे ठेकेदार को भी मालूम है कि बिना नज़राना दिए ना तो ठेका पास होगा और ना ही पेमेंट का चेक बनेगा? हो सकता है कि ये सिर्फ झूठा दुष्प्रचार हो, लेकिन ज़रा गौर से सोचिए कि क्या कोई विधायक किसी इंजीनियर से दस लाख रुपये का 'चंदा' यूं ही मांगने लगेगा? क्या एमएलए को मालूम नहीं कि एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर की सैलरी कितनी होती है? और क्या कोई एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर अपनी सैलरी से इतने पैसे बचा सकता है कि वो दस लाख रुपये चंदा देने की हैसियत रखता हो? मुझे दिवंगत इंजीनियर के परिवार से पूरी सहानुभूति है, लेकिन अपने साथी की मौत से नाराज़ इंजीनियर एसोसिएशन के ओहदेदारों के पास क्या है कोई जवाब कि आखिर उन्होंने अपने सदस्यों की छवि पर लगने वाले दाग़ मिटाने के लिए कोई पहल क्यों नहीं की? क्यों बना ली ऐसी छवि कि हर कोई ये समझने लगा है कि पीडब्ल्यूडी महकमा तो दुधारू गाय है और इस महकमे के मुलाज़िम इस गाय को दूह-दूहकर मलाई काट रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई सबको पता है कि पीडब्ल्यूडी के करोड़ों रुपये के ठेकों में लाखों रुपये का कमीशन फिक्स होता है..। कमीशन की इसी मोटी मलाई में हिस्सेदारी की चाहत रखने वालों की भीड़ बढ़ रही है। मनोज गुप्ता उसी भीड़ की चाहत का शिकार हो गए। डर इस बात का है कि एक बलि लेकर भी ये प्यास नहीं बुझेगी, क्योंकि इस बार भी घटना की जड़ काटने की बजाय असली मुद्दे को जड़ से काट देने की राजनीति शुरू हो चुकी है। बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इंजीनियर एसोसिएशन के खुले आरोप पत्र के बाद हुई थी..।
गिरिजेश मिश्र