मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद पहली बार ऐसा लग रहा है कि देश जाग उठा है। लोगों के गुस्से का गुबार धीरे-धीरे जनांदोलन की शक्ल लेता जा रहा है। लेकिन, इस गुस्से को सही दिशा मिलनी ज़रूरी है वर्ना ये भटक सकता है। इस तरह के आंदोलन खुद-ब-खुद और तेज़ी से उठ खड़े होते हैं, लेकिन मंजिल तक पहुंचने की राह पता न होने की वजह से उतनी ही ज़ल्दी दम भी तोड़ देते हैं। लोग सियासी दलों और नेताओं को अपने पास फटकने नहीं देना चाह रहे, उनकी नाकामी जनता की नज़र में नफरत और हिकारत में बदल गई है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर आगे चलकर इस आंदोलन का रुख क्या होगा? क्या इसकी अगुवाई करने वाला कोई मिलेगा या यूं ही वक्त गुज़रने के साथ ये भी गुज़र जाएगा? ज़रा सोचिए कि अगर इस गुस्से, इस आंदोलन को सही दिशा मिल जाए तो देश की तस्वीर बदलने में क्या ज़्यादा वक्त लगेगा? लोगों के दिल में कुछ कर गुज़रने का ज़ज्बा हिलोरें मार रहा है, लेकिन क्या करना है, ये बताने वाला नज़र नहीं आ रहा.....कुछ कीजिए...इसे सही राह दिखाइए...इससे पहले कि नींद से जागे शेर फिर सो जाएं, इन्हें राह दिखाइए
परम
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3 comments:
हम सब कहीं न कहीं मुंबई हमले के बाद से बेहद आहत हैं...एक भयानक सपने की तरह आतंक का ये लाइव टेलीकास्ट हमारे भीतर कहीं चिपक गया है... रहस्य रोमांच से भरपूर रामगोपाल वर्मा की किसी एक्शन फिल्म की तरह... आतंकवादियों का मकसद हम मीडियावालों ने काफी हद तक पूरा कर दिया है... वो अगले ऑपरेशन को अंजाम देने की तैयारी में लग गए हैं और उन्हें इस बात का भरोसा हो चुका है कि आतंक का उनका मिशन पांच-दस फिदायीनों से पूरा हो सकता है.. बाकी काम तो मीडिया कर ही देगा...
दरअसल आजकल विजुअली बहुत कुछ होने लगा है। प्लॉट ऐसे गढ़े जाते हैं ताकि कैमरा अपना काम करे और एक कसी हुई स्क्रिप्ट के साथ, पूरे एंबियंस के सहारे आप टीवी के ज़रिये आतंक का ताना बाना बुन सकें, इसे घर घर में पहुंचा सकें, लोगों के दिमाग में इसके खौफ को स्थापित कर सकें। मीडिया के 'ट्रेंड' को समझते हुए इसके इतने बेहतर इस्तेमाल की बात आतंकवादी ही सोच सकते हैं। क्या हमने कभी सोचा कि आखिर क्यों मुंबई, दिल्ली, चेंन्नई, बैंगलुरू जैसे महानगर उनके निशाने पर हैं? श्रीनगर में वो ऐसी कार्रवाइयां करके थक चुके, उतना माइलेज नहीं मिला.. अब नई रणनीति के तहत ये महानगर हैं और इसका फायदा भी वो देख रहे हैं। सबसे बड़ा फायदा ये कि उन्होंने देश की जनता को विद्रोही बना दिया, अपनी ही व्यवस्था, अपने ही तंत्र और अपने ही राजनेताओं के खिलाफ भड़का दिया। अब जब आप अपनी ही कमियों को दुनियाभर में बताने लगेंगे, व्यवस्था की चूक पर अपनी सेना, अपने खुफिया तंत्र, अपनी सरकार को कटघरे में लाने लगेंगे तो इसका फायदा कौन उठाएगा? कुछ पल को आपको लग सकता है कि तीन दिसंबर को मुंबई, दिल्ली या दूसरे महानगरों में उमड़ा जनसैलाब एक बदलाव का संकेत है, एक बड़े आंदोलन का आग़ाज़ है लेकिन क्या आप दोबारा इतने लोग इकट्ठे कर सकते हैं? मेरा मानना है कि ये महज एक 60 घंटे के लाइव शो की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर है, इसके लिए नेतृत्व की तलाश करना उचित नहीं है। आपका शीर्षक 'कोई राह तो दिखाए...' हमारी उस बेबसी का इज़हार करता है जो हमेशा से किसी 'कोई' का इंतज़ार करता रहता है। बहरहाल मुंबई हमले के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोगों के सड़क पर आने से सब चकित तो हैं और इसे सिनेमाई अंदाज़ में एक बदलाव के संकेत की तरह देखने भी लगे हैं लेकिन क्या ये भीड़ वाकई व्यवस्था में बदलाव ला सकती है?
परम जी, आपका ब्लॉग एक बेहतर कोशिश है... किसी बहस को मंच देने में आप कामयाब हों और इस बहाने अपनी संवेदनाओं और विचारों को शब्द दें...हम आपके साथ हैं.. शुभकामनाएं..
अतुल सिन्हा
आपने बिल्कुल सही लिखा है, इस वक्त लोगों को सही नेतृत्व की ज़रूरत है। देश को इस वक्त वाकई एक ऐसा नेता चाहिए जो इस गुस्से को सकारात्मक दिशा में मोड़ सके। यकीन मानिए देश में क्रांतिकारी बदलाव ज़रूर आएगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि लोगों के बीच से निकला वो नेता कहीं फिर से अवाम की ताक़त का गलत इस्तेमाल करना तो नहीं शुरू कर देगा? हममे से निकला नेता हमारी कितनी अहमियत देता है ये किसी से छिपा नहीं है। आज के गुस्से से निकला नेता भी कहीं दलाली न शुरू कर दे। क्या आज इस देश में किसी की हिम्मत है जो हमारे द्वारा ही चुने गए इन नेताओं से पूछ सके कि नेता बनने के बाद तुम्हारे पास इतनी बेहिसाब संपत्ति कहां से आई? जेपी आंदोलन से निकले नेता आज क्या कर रहे हैं? लेकिन आपका कहना ठीक है कि कहीं लोग भटक न जाएं, इसलिए नेतृत्व तो ज़रूर चाहिए। हमलोग उम्मीद करें कि आंदोलन दम नहीं तोड़ेगा जनता की कोशिश से मंजिल तक पहुंच जाएगा। कुछ करने की ज़रूरत तो है ही, नहीं तो हम दोबारा नींद से सो जाएंगे।
धीरज
दुख तो बहुत हुआ था मुंबई में जो कुछ हुआ उसे देख कर। सबसे पहला सवाल तो मन में ये आया कि सत्ता यानि सरकार किस की है ? आतंकियों की जो अपनी मर्जी से जब चाहे, जहां चाहें मासूमों को निशाना बना देते हैं। या फिर उस पार्टी की जिसे हम चुनकर भेजते ताकि वो हमारी रक्षा कर सके। मुंबई हमला या यूं कहें हर हमला देश की सरकार को चुनौती है। पर शायद सरकार ये बात समझ में नहीं आती कि लोगों की जान की रक्षा करना किसका कर्तव्य है। रही बात पुलिस की तो 99 फीसदी मालपानी कमाने में ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्हे लगता है लोग तो मरने के लिए ही पैदा हुए हैं आतंकी नहीं मारेंगे तो वो उनका खून चूस लेंगे तो वो खुद ही मर जाएंगे। सियासी लोग सियासी फायदा देखते हैं कोई मरे तो उससे उन्हे क्या फर्क पड़ता है। बाकि रही लोगों की बात तो लोगों में गुस्सा तो बहुत है मगर लोग क्या कर सकते हैं। मैं इस मामले में जनांदोलन जैसी बात से इतिफाक नहीं रखता क्योंकि आदोंलन किसके खिलाफ करें। जो मार रहे हैं वो तो कठपुतली हैं उनके आका तो कहीं और हैं। और हमारे आंदोलनों से उनको कोई फर्क पड़ता नहीं है। लोग दो चार दिन गुस्सा हैं फिर वही खाने कमाने वाली मानसिकता लेकर अपने दफ्तरों को निकल पड़ेंगे। आंदोलन करने का टाइम किसके पास है। एक ही उम्मीद है कि नेता ये समझ जाएं कि आतंक सियासत की जगह नहीं है। एक बार संसद हमले में तो बच गए शायद दूसरी बार किस्मत साथ दे ना दे कौन जानता है ?
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