मुंबई पर हुए सबसे बड़े हमले के बाद सरकार कथनी के साथ-साथ करनी पर भी पूरा ज़ोर दे रही है। पुराने वाले गृह मंत्री की विदाई कर दी और विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री दोनों पूरी फिक्र और जोश के साथ तीन दिन तक काम में जुटे रहे...अब ये मत पूछ बैठिएगा कि क्या प्रणब दा विदेशी नेताओं के साथ कूटनीतिक मोर्चे पर डटे हैं या एंटनी साहब आगे से ऐसे हमलों को रोकने के रक्षा उपायों में जुटे हैं...क्योंकि जवाब जानकर फिर सोच में पड़ जाएंगे कि पार्टी बड़ी या देश? आगे के चुनाव का ज़्यादा ख्याल या देश की सुरक्षा का ? हम भी नहीं चाहते कि रोजमर्रा की उलझनों में पहले ही से परेशान आप लोगों को इन सवालों में और उलझाएं... लेकिन, सवाल तो फिर भी उठता ही है कि ऐसे अहम मौके पर देश के ये दो अहम केंद्रीय मंत्री कैसे अपना पूरा वक्त महज एक मुख्यमंत्री को चुनने की कवायद में लगा रहे थे? उस कवायद में, जिसका अंत अंतत: आलाकमान को ही करना था..और नारायण राणे साहब को भी तो देखिए..सियासत में पिछड़ने का गम शायद उनकी मातृभूमि पर हमले से भी ज़्यादा भारी पड़ रहा है..
आपका
परम
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4 comments:
बिकलुल सही कहा आपने,जब सोनिया गांधी को ही सब कुछ तय करना था तो क्यों अपना कीमती वक्त देश को नहीं दिया ?
हो सकता हो है कि ये दोनों ही मंत्री एक ऐसे धर्म संकट में हों जहां से निकलकर देशहित की तरफ मुड़ना इन्हें नामुमकिन लग रहा हो। फिर भी ये नामुमकिन सा दिखने वाला क़दम कभी न कभी तो उठाना ही पड़ेगा.........
नहीं तो आतंकियों के लिए हमारा भारत खुले आंगन जैसा बना रहेगा....
आपका
शंभु नाथ
सियासत सबपर भारी है । बिल्कुल सही विचार हैं परमजी ! सियासी नफे-नुकसान में उलझे नेताओं को किसकी फिक्र, किसकी चिंता ! ब्लास्ट हों तो हों, हमले हों तो होते रहें, महंगाई बढ़ती है तो बढ़े। आम आदमी पिसता है तो पिसे, मरता है तो मरे । नेताओं को क्या फर्क पड़ता है । किसी के घर का चिराग बुझता है तो बुझे, किसी की आंख का नूर हमेशा के लिए खोता है तो खो जाए ! लेकिन वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता । जिल्लत और किल्लत की जिंदगी जी रही आम जनता में उबाल आने लगा है । धीरे-धीरे ही सही लोग नेताओं की हकीकत समझने लगे हैं । वो वक्त भी ज्यादा दूर नहीं जब इन बेमुरव्वत नेताओं के गिरबां तक आम आदमी का हाथ पहुंचेगा ...बस थोड़ा सब्र और..........।
परमिंदर जी बौधिक खुराक देने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.....
अब नेता कुछ करें या न करें, पब्लिक का ध्यान इसपर नहीं है। पब्लिक जो चाहती है आज नेताओं को वो करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। यही हमारे देश में लोकतंत्र की सफलता की सबसे बड़ी निशानी है। शायद अभी के घटनाक्रम से नेता कुछ सबक सीखें और आगे अपनी नेतागिरी पर कुछ लगाम लगाएं।
औऱ हां, लोगों में अभ वो हिम्मत आ गई है कि वो सवाल करने लगें हैं। आइए, हम भी उस कड़ी का हिस्सा बने।...
हल्ला बोल.........
-हिमांशु
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